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________________ २६४ श्रीमद्भगवद्गीता चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवढ़म् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ ३४॥ . . अन्वयः। हे कृष्ण ! हि ( यतः ) मनः चंचलं प्रमाथि ( प्रमथनशीलं देहेन्द्रियक्षोभकर इत्यर्थः ) पलवत् ( प्रवलं ) ( तथा ) दृढ़ ( विषयवासनानुवन्धितया दुर्भव), अहं तस्य ( एवम्भूतस्य मनसः) निग्रहं (निःशेषेण रोध) वायोः ( निग्रहं ) इव सुदुष्करं ( सर्वथा कर्तुं अशक्यं ) मन्ये ॥ ३४ ।। - अनुवाद। हे कृष्ण ! मन तो अति चंचल, प्रमाथि, बलवान और दृढ़ है । हमारे मन में होता है कि इस मनको निग्रह करना वायुके निग्रह करनेके सदृश अति कठिन व्यापार है ॥ ३४ ।। : व्याख्या। चित्तकी साम्य भावको ही योग कहते हैं। यह साम्य भाव एक वारगी जल्दी नहीं आता। प्रथम प्रथम यह योग क्षणस्थायी सदृश होता है, तत्क्षणात फिर चमक-भंग सरिसे भंग हो जाता है; विषयाकर्षणके लिये मनका चंचलता ही इसका कारण है। इस अवस्थामें साधक स्थिर स्थिति अर्थात् दीर्घस्थायी समाधि नहीं पाते। ३३ श्लोकमें यह बात ही अर्जुनके मुखसे व्यक्त हुआ है। परन्तु साधक क्रियायोगसे क्षणिक स्थितिभोग करके मनकी प्रकृति जान सकते है, देखते हैं कि, मन अति "चंचल"-"प्रमाथि” अर्थात् एक न एक विषयमें धावित हो करके इन्द्रिय समूहको विलोड़ित कर रहा है, स्थिर होने नहीं देता, "बलवत्" अर्थात् इतना प्रबल है कि, वशमें लाना मुश्किल हैं-और "दृढ़" अर्थात विषय-वासनासे जड़ित रहनेके सबबसे दुर्भेद्य है, भेद करने के लिये जानेसे वासनामें ही लपटाये पड़ने होता है। यह सब प्रत्यक्ष करके ( भोग करके ) हो साधक मनमें स्मरण करते हैं, कि जैसे शरीरमें वायुका निरोध करना अति कठिन है, मनको वश करना भी तैसे कठिन है, वश होता ही नहीं। इसलिये व्याकुल हो करके पुनराय श्रीगुरुके शरणापन्न होते
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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