SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ अध्याय २६३ साधनाका चरम फल है, इस अवस्थामें जो साधक आ पहुँचते हैं, वही पुरुष परम योगी हैं। श्रीभगवानं ब्रह्मज्ञके ( जीवन्मुक्तके ) लक्षण और अवस्था २६।३०।३१ श्लोकमें कह पाये हैं; विशेषतः "सर्वथा वर्तमानोऽपि' इत्यादि क्वन द्वारा दिखला दिये है कि, उनको ( उस योगीको) और कोई विधि निषेध नहीं है, इसलिये संसारवाही मूढ़ सरिस आचार व्यवहार उनको होना भी असंगत हो नहीं सकता। तब उनके मनोभाव कैसा होता है सो लक्ष्य करा देनेके लिये भगवान् ३२वां श्लोकमें कह आये हैं कि, उनके भीतर बाहर एकरस बरोबर समान. भीतरमें भी जैसे निर्विकार रहते हैं, बाहर आनेसे भी वैसे सुख दुःखका तरंग उनके मनमें उठता ही नहीं। इस अवस्थाको लक्ष्य करके ही अष्टावक्र ऋषि कहते हैं, "हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया। न हि संसारवाहीकै मूढः सह समानता ।। यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः। अहो ! तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति” ॥३२॥ अर्जुन उवाच। .. योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात् स्थिति स्थिराम् ॥३३॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच। हे मधुसूदन ! अयं य: योगः त्वया साम्येन (समत्वेन ) प्रोक्तः ( कथितः ), अहं चंचलत्वात् एतस्य ( योगस्य ) स्थिरी (अचला) स्थितिं न पश्यामि ( नोपलभे ) ॥ ३३ ॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे मधुसूदन । साम्यरूप यह जो योग आप मुमको कहते हैं, मनके चंचलताके लिये इसका अचल स्थिति में नहीं देखता हूँ। ३३॥ व्याख्या। पर श्लोकके व्याख्या में देखो॥३३॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy