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________________ २६० श्रीमद्भगवद्गीता यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वच मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥ ___ अन्वयः। यः मां ( सर्वस्यात्मानं ) सर्वत्र पश्यति, सर्व ब्रह्मादिभूतजातं ) च . मयि (सर्वात्मनि ) पश्यति, तस्य (आत्मैकत्वदशिनः एव ) अहं ( ईश्वरः ) न प्रणश्यामि ( न परोक्षतां गमिष्यामि ) स: च ( विद्वान् ) मे ( मम ) न प्रणश्यति (न परोक्षो भवति ) ॥ ३०॥ अनुवाद। हमको जो सर्वभूतमें तथा सर्वभूतको हमही में दर्शन करते हैं, उनके पास कभी मैं नष्ट ( अदृश्य ) नहीं होता हूँ तथा वह भी कभी हमारे पास नष्ट ( अदृश्य ) नहीं होता है ॥ ३० ॥ व्याख्या। सिद्ध होनेके बाद, साधक साधनाके चरम सीमामें पहुँचनेके पश्चात् अपनी इच्छानुसार ब्रह्ममें मिल जाकर निराकार रूप से "सदसत्तत्परं यत्-एकमेवाद्वितीय" भी हो सकते हैं, फिर मिश न जाकर "हरिहरात्मा” के सदृश साकारमें उपास्य उपासक भाव रक्षा करके भी अवस्थिति कर सकते हैं, यह दोनों ही उनके आयत्ताधीन रहता है। प्रथम अवस्था अद्वैतवादका विषय है, और द्वितीय अवस्था विशिष्टाद्वैतवादका विषय है। इस श्लोकमें वो दोनों अवस्था ही व्यक्त हुआ है, यथा - सर्वत्र समदर्शी, अभेद ज्ञान सम्पन्न होनेसे योगी परमात्मामें मिशकर नित्ययुक्त होते हैं, तब उनके अन्तःकरणमें उभयत्व मिट जाके एक अद्वितीय “मैं” ही रहता है, जिसलिये मैं" देके उनको, उनको देके "मैं" को ढांकना नहीं होता। दोनों मिट जाके एक होनेसे-'तत्' और 'त्वं' मिश करके एक 'अहं' होनेसे, उनके 'मैं' और मेरा 'वह' दोनों मिलकर 'एक'-इस भावका नाश नहीं होता। ( यह अद्वतवाद है)।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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