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________________ षष्ठ अध्याय अनुवाद। उपरोक्त प्रकारसे मनको सर्वदा वशमें लाते लाते योगी विंगतपाप होकरके ब्रह्मसाक्षात्कार रूप सर्वोत्तम सुख भोग करते हैं ।। २८॥ व्याख्या। २७ वा और २८ वां श्लोकका विषय एक ही है, दोनों में ही योगी जीवन्मुक्त है । परन्तु प्रभेद यह है कि, २७ श्लोकमें योगी सुखके आश्रय स्वरूप, स्वयं निष्क्रिय है, २८ श्लोकमें योगी सुखका भोक्ता इसलिये सक्रिय हैं। २७ श्लोकमें योगो ब्रह्ममें समाहित अवस्था प्राप्त. २८ श्लोकमें योगी ब्रह्ममें प्रबुद्ध अवस्था प्राप्त है। २८ वां श्लोकको अवस्था २७ वां श्लोककी अवस्थाका परिपाक-फल है ॥२८॥ सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २६ ॥ अन्वयः। योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ( सर्वभूतेषु भेदज्ञान-परिशून्यः सन् ) आत्मानं ( स्वं ) सर्वभूतस्थं ( सर्वेषु भूनेषु व्याप्य स्थितं) सर्वभूतानि च आत्मनि (स्थितानि इति शेषः ) ईक्षते ( पश्यति ) ॥ २९ ॥ अनुवाद। योग द्वारा युक्तचित्त और सर्वत्र समदर्शन सम्पन्न योगी आत्माको सर्वभूतमें स्थित और सर्वभूतको आत्मा ( स्थित) अवलोकन करते हैं ॥ २९॥ व्याख्या। पूर्व श्लोकोक्त जीवन्मुक्त अवस्थाका लक्षण यह है कि, जीवन्मुक्त पुरुष अपनेमें और सर्वभूतमें समदर्शी-अभेद ज्ञान सम्पन्न है, उनके लिये सबही ब्रह्म है, अतएव ब्रह्म बिना दूसरा कुछ एनकी दृष्टिमें पृथक बोध नहीं होता। साधक ! क्रियाके परावस्थाके परावस्थामें उतर पा करके तुम जो आत्ममिलन करते हो, जिसमें तुम्हारा विपरीत बोधन अन्तःकरणमें उठने ही नहीं पाता, यह श्लोक उसीका साक्षी देता है, मिलाय लेवो ॥ २६ ॥ -१६
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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