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________________ २७८, श्रीमद्भगवद्गीता ही आहार नियमित होता है। उदरका आधा अंश अन्न द्वारा, एक चतुर्थांश पानी ( दुग्ध, जल ) द्वारा पूर्ण करके अवशिष्ट चतुर्थ अंश वायु चालन के लिये खाली रखनेका का नाम मिताहार है । जिस प्रकार चाल चलनमें चलने से अंग-प्रत्यङ्ग की परिचालना हेतु शरीर कम्मठे रहे, अथच श्रमका उदय न हो उसीका नाम नियमित विहार है । क्रिया ( साधना ) अब थोड़ा सा कर दिया, इसके बाद थोड़ा करूंगा, आज नहीं हुआ, कल दो दिनका एक साथ कर लूंगा, इस प्रकार करने से योगसिद्धि नहीं होती, साधनाके लिये नियम ठीक रखना चाहिये; अर्थात् किस समय के घड़ी क्रिया करना होगा उस विषयमें प्रथम दृढ़ता चाहिये; इसमें किसी प्रकार व्यतिक्रम न होनेसे ही युक्तचेष्ट होना होता है। तंसे निद्रा जागरण भी नियमित होना चाहिये; क्योंकि, अधिक निद्रा सेवनमें शरीर अवसन्न और वायु-पथ समूह श्लेष्मायुक्त होने से योगानुष्ठान में किन होता है; तैसे एकदम न सोने से भी शरीर ग्लानियुक्त होके नाना प्रकार विकारग्रस्त होता है, योग होता ही नहीं। योगाभ्यासीके लिये एक प्रहर काल निद्रा लेना ही यथेष्ट है । प्रथम प्रथम योगाभ्यास के समय रात्रिमें पूरी एक नींद खुलासा लेनी होती है; तिसके बाद उठकर शौच प्रस्रावादि त्याग करके, हाथ मुख धोके शुचि होके शासन करके बैठके क्रिया करना होता है । योगमार्ग में कुछ अग्रसर होनेके पश्चात्, उस निद्रा दिनमान में आहार के बाद लेकर रात्रिका सम्पूर्ण समय योगानुष्ठान में लगाना अच्छा है । पुनश्च नियमित परिमाण निद्रा लेके दिन रात योगाभ्यास करोगे, सो नहीं होगा; स्वाभाविक अवस्था में सजाग रहना भी चाहिये। यह सब बाहर के नियम हैं । * " मिताहारं विना यस्तु थोगारम्भं च कारयेत् । नाना रोगो भवेत्तस्य किञ्चिद् योगो न सिध्यति ॥ "
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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