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________________ षष्ठ अध्याय २७७ समाधि ही इस श्लोक में "मत्संस्थां निर्वाण-परमा शान्ति” अर्थात् चैतन्यमें निर्वाणरूप शान्ति ( चैतन्य में मिलकर मिट जाना अवस्था ) है ॥ १५ ॥ नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६ ॥ अन्वयः । हे अर्जुन ! तु ( किन्तु ) अत्यश्नतः ( अत्यधिकं भुञ्जानस्य ) योगः ( समाधिः ) न ग्रसित ( न भवति ) - न च एकान्त ( अत्यन्तं ) अनश्नतः ( अभुञ्जानस्यापि ), न च अतिस्वप्नशीलस्य ( अतिनिद्राशीलस्य ) - न च एव (अति) जाग्रतः ( योगः अस्ति इत्यर्थः ) ॥ १६ ॥ अनुवाद | परन्तु हे अर्जुन ! अति भोजन करने वालोंका योग नहीं होता, एकदम भोजन न करने से भी योग नहीं होता तैसे अतिनिद्रालुके भी नहीं होता, और एकदम जागनेवाले को भी ( योग ) नहीं होता ॥ १६ ॥ व्याख्या । १७ लोककी व्याख्या में देखो ॥ १६ ॥ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्म्मसु । युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥ अन्वय । युक्ताहारविहारस्य ( नियमित भोजन पादक्रमस्य ) कर्म्मसु युक्तचेष्टस्य ( नियमानुसारेण चेष्टा कुर्वतः ) युक्त स्वप्नावबोधस्य ( नियमित निद्राजागरस्य ) दुःखहा ( सर्ब संसारदुःखक्षयकृत् ) योगः भषति ( सिध्यति ) ॥ १७ ॥ अनुवाद | नियमित आहार विहार करनेवाला, कर्म्म सकलको नियमित चेष्टा करनेवाला, और नियमित निद्रा तथा जागरित रहनेवाला जो है, उसीको दुःखहारी योगसिद्धि होती है ॥ १७॥ व्याख्या | योगीके लिये अति आहार, अनाहार दोनों ही निषिद्ध है, नियमित आहार ही उनको विधेय है । १७ अः ८ म श्लोकके अनुसार सात्त्विक आहार, सो भी परिमित परिमाण होने से
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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