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________________ षष्ठ अध्याय २७३ व्याख्या। पूर्व श्लोकमें योगाभ्यासका आसन-प्रकरणं कहके किस प्रकार भावसे शरीरको रखना होगा, इस लोकमें उसी कथा कहते हैं। दोनों स्कन्ध स्वाभाविक अवस्थामें रखके, पीछेकी तरफ छातिको थोडासा चिताय करके, कठि-पीठ खड़ा (सीधा ) करके, चिबुक (टुढढी ) को कण्ठकूपकी तरफ थोड़ासा झुकाकर मस्तकको जितना खड़ा किया जा सके, करनेसे ही "समं कायशिरोप्रीवं" हुआ जाता है। मस्तक, घाड़ (गहन ) और पीठकी रीढ़ ( मेरुदण्ड) इस प्रकार भावसे सीधा करना होगा, जैसे ये तीन एक हो जायें, किसी प्रकार न हिल सकें। उस प्रकारसे शरीरको धारण करके मस्तकप्रन्थिकी भीड़ेसे दोनों ध्र के अयन बीचमें-जहां आज्ञाचक्र है उसी स्थानमें-मनही मनसे ताकना होवेगा; चक्षुके ऊपर किसी प्रकार जोर जबर्दस्ती न करना चाहिये, आंख मूंदके भीतर भीतर स्वाभाविक भावसे मनही मनमें दृष्टि प्रक्षेप करनेसे ही नजर भ्रमध्यमें स्थिर होता है। उस प्रकारसे नजर स्थिर करके क्रिया करनेसे दसों दिशा में नाना प्रकार रंग बिरंग दर्शनमें आता है, परन्तु उन सबको मन लगाकर देखना न चाहिये; दृष्टि केवल ठीक मध्यमें रखना होता है । इसी प्रकार भावसे योगानुष्ठान करना कर्तव्य है ॥ १३ ॥ प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिबते स्थितः। मनः संयम्य मञ्चित्तो युक्त भासीत मत्परः ॥ १४ ॥ अन्वयः। (तदनन्तरं ) प्रशान्तात्मा (प्रकर्षेण शान्तान्तःकरण ) बिगतभीः ( विगतभयः ) ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ( सन् ) मनः संयम्य ( मनसो वृत्तीरुपसंहृत्य ) मच्चित्तः ( मयि अपितचित्तः ) मत्परः ( मदेकनिष्ठः) ( एवं ) युक्तः ( समाहितः सन् ) आसीत (तिष्ठेत् ) ॥ १४ ॥ अनुवाद। (तत्पश्चात् ), प्रशान्तात्मा, भयवज्जित, ब्रह्मचर्यशील संयतमना, मद्तचित्त, मत्परायण और युक्त होके अवस्थान करेंगे ॥ १४ ॥ -१८
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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