SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्भगवद्गीता उसको पृथिवी खींच ले नहीं सकता; वैसे मूलाधार-स्वाधिष्ठान-मणिपुरके ऊपर अनाहतमें शरीरका वेग धारण तथा उसमें सम्पूर्ण रूप बोझ देकर स्थिर हो सकनेसे, मन पर पार्थिव विषयकी चंचलता आक्रमण कर नहीं सकती। भीतर और बाहरमें उस प्रकार श्रासनके ऊपर स्थित होके मन को एकाग्र करना होता है, अर्थात् मनोवृत्ति समूहको एकमें केन्द्रीभूत करना होता है। मूलाधारादि पांच चक्र पांचों तत्त्वके आधार हैं कह करके वह सब पांच हैं, और आज्ञाका विन्दु ही एक है। मनको मस्तक-सन्धि वा योग-स्थानमें रखके ( दूसरा चित्र देखो), इस विन्दु को दिल लगाकर लक्ष्य करनेसे ही, मनको एकाग्र करना होता है। इस प्रकारसे एकाग्र करनेसे ही चित्त और इन्द्रियोंकी क्रिया आपही आप समेट आती है, और विषयमें नहीं जाती। - उपरोक्त प्रकार में योगाभ्यास (प्राणचालन ) करनेसे ही चित्त शुद्ध होता है ॥ ११ ॥ १२॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्र स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥ अन्वयः। कायशिरोग्रीवं ( कायः देहस्य मध्यभागः शिरः ग्रीवा च मूलाधाराधारभ्य मूर्तीग्रपर्यन्त ) समं ( अवकं ) अचलं च धारयन् , स्थिरः (दृढ़प्रयत्नः सन् ) स्वं (स्वकीयं ) नासिका (नासिकायाः अन शोषंदेशं भ्र वोर्मध्यभागं इत्यर्थः ) संप्रेक्ष्य (भ्र मध्ये बद्धदृष्टिः भूत्वा इति भावः) दिशः च अनवलोकयन् ( योगं युज्यात् इति पूर्वेणान्वयः) ।। १३ ॥ ___ अनुवाद। काय ( शरीरका मध्यभाग) शिर और ग्रोवाको समान और अचल भावमें रखके दृढ़ प्रयत्नके साथ अपनी नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि स्थिर करके, किसी दिशामें अवलोकन न करके ( योगाभ्यास करेंगे ) ॥ १३॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy