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________________ षष्ठ अध्याय २६५ अनुष्ठान फल करके अधिक समय कूटस्थमें अटक रहके-देह “मैं" नहीं है, “मैं” का भी देह कर के कुछ नहीं है-इस प्रकार दृढ़ज्ञानसे देहाभिमानशून्य होते हैं, वही साधक जितेन्द्रिय हैं। जितेन्द्रिय पुरुष ही महापुरुष। वही भाग्यवान आत्मा द्वारा आत्माको अर्थात् मन द्वारा मनको जय करके आप ही आपके बन्धु हुये हैं; अर्थात् सकल अवस्था में ही वह आत्मामें रहते हैं; आत्मासे विच्युत होके उनको विच्छेद भोग करना नहीं पड़ता, किन्तु जो अजितेन्द्रिय देहाभिमानी है, वह अनित्य असत्यको नित्य-सत्य ज्ञान करके मोहित हो रहते हैं, अपना उद्धार साधन कर नहीं सकते। देहाभिमान वश करके उसका स्वभाव ऐसा ही होता है कि, शत्रु जैसे इष्टनाश करके अनिष्ट साधन करता है, वह भी वैसे अज्ञानताके मारे मायाकी धोरमें पड़के अपनी प्रकृत इष्ट-त्याग करके अनिष्ट विषयमें इष्टज्ञान करता है ॥ ६ ॥ जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। शीतोष्णसुखदुःखेष तथा मानापमानयोः॥७॥.. अन्वयः। "जितात्मनः ( जितेन्द्रियस्य ) प्रशान्तस्य (रागादिरहितस्य) परमात्मा समाहितः ( साक्षादात्मभावेन वत्तं ते इत्यर्थः) किश्च शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः (पूजापरिभवयोः) [ समः स्यात् इत्यध्याहारः ]"-शंकरः ॥७॥ अनुवाद। जो पुरुप जितात्मा और प्रशान्त, उनको परमात्मा साक्षात् आत्माभावमें अवस्थित हो रहते हैं, ऐसे कि, शीत उष्णमें सुख दुःखमें, मान अपमानमें अविचलित रहते हैं ॥७॥ . व्याख्या। जितात्माका अात्माही जो बन्धु है, उसीको स्पष्टतया व्यक्त करनेके लिये यह श्लोक कहा हुआ है। क्रियायोग करके ऊर्द्ध में उठ जायके जितेन्द्रिय और प्रशान्त (रागद्वषादि रहित ) अवस्था प्राप्ति होनेके पश्चात् साधकका सर्वत्र आत्मदृष्टि प्रतिष्ठित होता है-आत्मभावमें ही अवस्थिति होता है; और तब उनको
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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