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________________ २६४ श्रीमद्भगवद्गीता नित्य-सुख भोग होता है। उद्धार-साधन न कर सकनेसे संसारके (चक्रमें घुमना पड़ता है, सुख नहीं मिलता। इसीलिये कहा हुआ है कि "नात्मानमवसादयेत्” अर्थात् आत्माको ( मनको) आज्ञाके नीचे आने नहीं देना अर्थात् विषय संस्पर्शमें नहीं लाना। अापही श्राप अपनेको उद्धार न करनेसे दूसरा कोई नहीं कर सकता (४र्थ अ:४२ श्लोक की व्याख्या देखो)। मनको मनसे ही वश करने होता है, अर्थात् विचार-बुद्धिकी सहारासे विषय-वासना त्याग करके मनको अन्तमुख करना पड़ता है। मनको आज्ञा भेद कराके योगारूढ़ कर सकनेसे आपही आपका बन्धु हुआ जाता है, नहीं तो आपही आपका रिपु। अपना इष्ट अनिष्टका कर्ता आपही है, दूसरा नहीं । श्रीगुरुदेव उपदेश द्वारा पथ और लक्ष्यको मात्र देखला देते हैं, अनुष्ठान और पथ अतिक्रम आपही आप करना पड़ता है ॥ ५॥ बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मनस्तु शत्रत्वे वर्तेतात्मैव शत्रवत् ॥ ६ ॥ अन्वयः। येन आत्मना एव आत्मा जितः ( वशीकृतः ), आत्मा तस्य आत्मनः बन्धुः, तु (किन्तु ) अनात्मनः ( अजितात्मनः ) आत्मा शत्रबत् एव शत्रुत्वे वत्तेत ॥ ६॥ अनुवाद। जो पुरुष आत्मासे आत्माको वशीभूत कर चुके उनका आत्मा ही उनका बन्धु है। किन्तु जो अनात्मा अर्थात् आत्मासे आत्माको वश कर नहीं सकते, उसका आत्मा शत्रु सदृश उसका शत्रुताचरण करता है ॥ ६ ॥ व्याख्या। पूर्व श्लोकमें कहा हुआ है कि, आत्माही आत्माका बन्धु-आत्माही आत्माका रिपु है। किस प्रकार लक्षणाक्रान्त आत्मा श्रात्माका बन्धु, और किस प्रकार अात्मा आत्माका रिपु है, वही कथा इस श्लोकमें कहा हुआ है कि, जितेन्द्रिय पुरुषका आत्मा बन्धु, और अजितेन्द्रियका आत्मा रिपु है। जो साधक क्रिया-योगके
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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