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________________ पंचम अध्याय २५५ अर्थात् स्थिर होते हैं, और वही चित-ज्योतिके सहारेसे जो कुछ लक्ष्य होता है उसीको सूक्ष्म दृष्टि द्वारा भेद करते हैं, उसकी बुद्धि सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म, उससे भी सूक्ष्म होते होते अनन्तमें मिल जाता है. सर्ब बूत जाता है, अपने भी ब्रह्ममें मिश करके ब्रह्म हो जाते हैं । यही योगीका ब्रह्मनिर्वाण प्राप्ति है ॥ २४ ॥ लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। छिन्नद्वधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥ २५ ॥ अन्वयः। क्षीणकल्मषा: ( निष्पापाः ) छिन्नद्वधा (छिन्नसंशया; ) यतात्मानः (संयतचिताः ) सर्वभूतहिते रताः ( सर्वेषां भूतानां हिते आनुकुल्ये रताः ) ऋषयः (सम्यगदर्शिनः ) ब्रह्मनिर्वाणं लभन्ते ॥ २५ ॥ अनुवाद। निष्पाप, संशय शून्य, सर्वत्यागी और सर्व भूतों के हित साधन में रत ऋषिगण ब्रह्मनिर्वाणको लाभ करते हैं ॥ २५ ॥ - - व्याख्या। पूर्व श्लोकमें जिस प्रकारसे योगी ब्रह्मनिर्वाणको लाभ करते हैं, दिखायके, भगवान इस श्लोकमें संन्यासीके ब्रह्मनिर्वाण प्राप्ति की कथा कहते हैं। जो साधक योगानुष्ठान द्वारा सर्व कर्म त्याग करके ऋषि अर्थात् सम्यकदर्शी होते हैं, वह पुरुष ही संन्यासी, आब्रह्म स्तम्बपर्यन्त सबमें ही उनकी ब्रह्मदृष्टि, इसलिये उनमें कोई कल्मष वा द्विधा नहीं रहता। फिर उनका चित्त भी सदा ही विक्षेप-विहीन अवस्थामें ब्रह्मभावमें रहता है, इससे वह सर्वत्यागी, और वह मंगलमय होके सर्व प्राणियोंका हित करते हैं, अर्थात उनके दर्शन मात्र ही से जीव जगतके प्राणमें शान्तिका संचार होता है; और उनके उपदेश से ही ज्ञान लाभ किया जाता है। इसी प्रकारसे काल कटायके सन्यासी लोग भी ब्रह्मनिर्वाणको पाते हैं ॥ २५ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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