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________________ २५४ . . श्रीमद्भगवद्गीता विषयकी हानि करके विरक्त न होते हैं, वही पुरुष युक्त-वही पुरुष सुखी है। यह तो गये बाहरकी बात। वैसे भीतरमें गुरूपदिष्ट मार्गमें क्रिया करनेके समय जबतक मन "इह” अर्थात् पञ्चतत्वके भीतर रहता है, तबतक मनोवृत्ति समूह अतीव सूक्ष्म होनेके साथ ही साथ उस काम और क्रोधका वेग प्रबल होता है, और अनजान से मनको आक्रमण करता है। जो साधक इस अवस्थामें पंचतत्वके ऊपर उठकर अज्ञानचक्रको भेद करके कूटस्थमें पड़नेके पूर्व पर्य्यन्त (पाक् शरीरविमोक्षणात् ), विवेक और वैराग्यको श्राश्रय करके उस वेगको सहन कर सकते, अटल स्थिर भावसे कूटस्थको लक्ष्य कर रह सकते हैं, थोड़ा सा भी विचलित नहीं होते हैं, वही पुरुष युक्त-वही पुरुष सुखी, अर्थात् वह साधक सुन्दर चिदाकाशमें आश्रय प्राप्त होते हैं ॥ २३ ॥ योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ २४ ।। अन्वयः। यः अन्त:मुखः ( अन्त: आत्मनि सुख यस्य सः ) अन्तरारामः ( आत्मनि आरामः क्रीड़ा यस्य सः ) तथा एव यः अन्तज्योतिः ( अन्तः आत्मा एव ज्योतिः प्रकाशः यस्य सः ), सः योगी ब्रह्मभूतः ( ब्रह्मणि भूतः स्थितः सन् ) ब्रह्मनिर्वाणं ( ब्रह्मणि लयं ) अधिगच्छति ॥ २४ ॥ अनुवाद। जिनको आत्मामें ही सुख, आत्मामें ही आराम और आत्मामें ही प्रकाश है अर्थात् जो अन्त:करणमें स्वयं आत्माके बिना और किसीको नहीं लेते, वही योगी ब्रह्ममें स्थिति लाम करके ब्रह्मनिर्वाण ( कैवल्य मुक्ति ) प्राप्त होते हैं ।। २४ ।। व्याख्या। केवल काम-क्रोधके वेग धारण करनेसे ही नहीं होता; जिन्होंने अन्तर्दृष्टि द्वारा कूटस्थके भीतर प्रवेश पूर्वक चित्-स्वरूपको दर्शन करके सुख अनुभव करते हैं, अर्थात् उत्फुल्ल होते हैं, पश्चात् चंचलता विहीन होके वही चित-स्वरूपमें आराम लाभ करते हैं,
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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