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________________ २२६ चतुर्थ अध्याय अनुवाद। अज्ञ श्रद्धाहीन और संशययुक्त मनुष्य विनष्ट होता है। संशयात्माका इह लोक भी नहीं, परलोक भी नहीं, सुख भी नहीं ॥ ४०॥ व्याख्या। प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा द्वारा जो जाननेके विषयको नहीं जानते अर्थात् जो पुरुष क्रियावान नहीं, वह अज्ञ हैं। जो साधक प्रणिपातादि द्वारा जान करके भी पूर्व श्लोकके अनुसार श्रद्धावान नहीं होता, अर्थात् जो मनमें मन देकरके अन्तर्निविष्ट नहीं होता, वह अश्रद्दधान है। गुरुवेदान्त वाक्यमें जिसका स्थिर विश्वास नहीं है, अर्थात् संशयके लिये जो प्रणिपातादि प्रकरणके साथ क्रियानुष्ठानमें अग्रसर नहीं होता, सुतरां श्रद्धावानादि अवस्था विषयमें अनभिज्ञ है, वही संशयात्मा है। यह तीन ही आत्मगतिसे भ्रष्ट होकरके संसार गतिको प्राप्त होते हैं। इसके भीतर पहिला दोनों कुछ अच्छा है, क्योंकि वो दोनों थोडासा योगभ्रष्टके सदृश गति पाता है, परन्तु संयशात्माका इहकाल परकालमें शान्ति तो है ही नहीं, सुख भी नहीं; अर्थात् अन्तराकाश अज्ञानान्धकारसे ढका रहनेसे वह प्रकृत रास्ता भी नहीं पाता है केवल ज्वाला यन्त्रणामय संसारावर्त्तमें फेरा मारता रहता है॥४०॥ योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनब्जय ॥४१॥ अन्वयः हे धनञ्जय ! योगसंन्यस्तकम्मणिं ( कर्मयोगेन संन्यस्तानि कर्माणि येन तं ) ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ( ज्ञानयोगेन संछिन्नः संशयः यस्य तं ) आत्मवन्तं कर्माणि न निबन्धन्ति ।। ४१॥ अनुवाद। हे धनब्जय ! जो पुरुप कर्मयोग द्वारा कर्मसमूहको सम्यक् । प्रकारसे नाश करके ज्ञानयोग द्वारा सकल संशय छिन्न करते हैं, उस आत्मज्ञानसम्पन्न साधकको कर्मराशि आबद्ध नहीं कर सकते ॥४१॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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