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________________ २२८ श्रीमद्भगद्गीता श्रद्धा * है; इस अवस्थामें जब आ पहुँचते हैं, तब ही साधक श्रद्धावान् होते हैं। श्रद्धावान् होनेके बाद जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म दर्शन श्रवण मननादि क्रिया होती रहती है, उन सबको एकाग्र करके तत्ब्रह्ममें अर्थात् बिन्दुनादमें रत करना पड़ता है। यही है तत्पर अवस्था। इस प्रकार करनेसे दर्शन श्रवण मननादि वृत्ति “एकमें" आकृष्ट हो जाती है कह करके, अपना अपना पृथक् कर्म परित्याग करके संयत हो जाती है अर्थात् परस्पर मिलकरके एक हो जाती है। यही है संयतेन्द्रिय अवस्था। यह अवस्था आनेसे ही साधक ज्ञानको लाभ करते हैं; अर्थात् इतने काल पर्यन्त भीतरमें दर्शन, श्रवण मननादि द्वारा जिसका स्वरूप जानते थे, अब वही दर्शन, श्रवण मननादि गल जा करके एकरस हो करके, आ करके उसीमें पड़ता है, चित्त वृत्ति सब उड़ जाती है, सावकका "अहं" ज्ञान-मय हो जाता है; यही है ज्ञानलाभ । यह ज्ञान लाभ होनेसे ही ततक्षणात् पराशान्ति अर्थात् कैवल्य वा ब्राह्मीस्थितिकी प्राप्ति होती है ** ।। ३६ ।। अज्ञश्वाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४० ॥ अन्वयः अज्ञः अश्रद्दधानः ( अद्वाहीनः ) संशयात्या ( सन्दिग्धचित्तः ) च विनश्यति (स्वार्थात् भ्रश्यति )। संशयात्मनः अयं लोकः न अस्ति, परः (परलोकः ) न ( अस्ति ), सुखं न ( अस्ति ) ॥ ४० ॥ * इसीका नाम मनमें मन देना है ॥ ३९ ॥ ** यह श्रद्धावान आदि अवस्थात्रय प्रणिपात, परिप्रश्न, और सेवा का फल है; सुतरी सूक्ष्म प्रणिपातादिके पहिले भी साधकको स्थल भाषसे श्रद्धावान् , तत्पर और संयतेन्द्रिय होना पड़ता है-न होनेसे प्रणिपातादिमें अधिकार नहीं होता। स्थूलभावका श्रद्धावान् =गुरु-वेदान्त वाक्यमें विश्वासी, तत्पर = उस विश्वासके साथ क्रियानुष्ठानकारी, और संयतेन्द्रिय-ब्रह्मचर्यपरायण ॥ ३९ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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