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________________ साधनं प्रकरण [धर्म, व्यक्तिगत, समाजगत वा जातिगत भावसे विभक्त होनेवाला नहीं है। वह विश्वजनीन अविच्छिन्न वस्तु है। लोग इस विश्वजनीन धर्मके उद्देश्यसे जो जो क्रम बनाते हैं वा भिन्न भिन्न पन्थोंका अवलम्बन करते हैं, उसीको ही विधर्म कहा जाता है। विधर्म शब्द सापेक्ष है, किसीको साथ लिये बिना इस शब्दका व्यवहार नहीं हो सकता। अतएव हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान प्रभृति जितना धर्म है वह सब परस्पर परस्परका विधर्म है। वैसे ही आत्मधर्मके पास प्राकृतिक धर्म विधर्म है। फिर एक तस्वके धर्मके पास दूसरे तत्त्वका धर्म विधर्म है । गीताका "परधर्मो भयावहः” इस वाक्यका परधर्म ही विधर्म है। विधर्म व्यभिचारग्रस्त होनेसे ही कुधर्म होता है। -:: ५-साधन प्रकरण अब योग साधनाके विषयमें दो एक बात लिखकर अवतरणिका समाप्त किया जाता है। यह विश्वजगत् आत्मासे विनिर्गत हुश्रा है,-"विश्वमात्मविनिर्गतम्"। इसलिये योगी लोग आत्माको छोड़ स्वतन्त्र ईश्वर वा किसी देव देवीकी आराधना नहीं करते। वे आत्म साधक हैं; आत्मप्रतिष्ठा वा ब्राह्मीस्थिति ही उनका परम पुरुषार्थ है। जो पदार्थ इस विश्वब्रह्माण्डका मूल कारण और सर्व शक्तिके श्राश्रय है, जो स्वभावत: सर्वव्यापी है और सर्व जीवके भीतर चैतन्यरूपसे प्रकाशमान है, उस अद्वितीय पदार्थमें मनःसंयोग करना ही उनका आशय है। कारण कि मनुष्य सुख चाहता है। तत्त्वदर्शी योगीन्द्रगण देखे हैं कि, जगत्में जितना पदार्थ है, उसमें मन लगानेसे जो तृप्ति और सुख मिलता है, बहः परिणामी, थोड़ा और अनित्य है। इसलिये परित्याग करनेके
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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