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________________ २०७ ___ चतुर्थ अध्याय व्याख्या। साधन-समयमें साधकके ऊपर दो महाशक्ति कामकाज करती है, एक विकर्म शक्ति ( यह अपान वायुकी क्रिया है) और एक कर्म शक्ति। कम साधकको आत्मामें स्थिर करके गहनापार अर्थात् मायातीत करनेकी चेष्टा करता है, और विकम्म उनको खींचके विषयमें रखनेकी चेष्टा करता है। शरीर ही समष्टि-विकम क्रिया है। यह विकर्म एतना ही प्रबल है कि, कर्मयोगसे आत्मचैतन्यमें स्थिति लाभ करनेके ठीक पूर्वक्षणमें ही यह (विकम) शब्दस्पर्शादि कोई एक विषयको मनके भीतर जगाय देके चैतन्यको ढांक देता है, तब, कत्त्व मिट जाके निश्चेष्ट क्रिया होते रहनेसे, अवश मन चैतन्यमें स्थिर न होके उसी विषय लेके स्थिर हो जाता है। इसलिये वह स्थिति अकम न होयके विकम-भोग हो जाता है ( १६ श्लोक देखो)। फिर ऐसा भी होता है, साधक जब अकममें ही स्थिति पाके कत्र्तृत्वहीन स्वाभाविक निश्चेष्ट क्रियासे ( जलमें गली हुई मिश्रीके सदृश ) क्रम अनुसार व्याप्त होके परमात्मा-ब्रह्ममें घुल जायके मिलकर एक रस होने जाते हैं, तब शारीरिक प्रवल विकर्म की ताड़नासे वो स्थिर अवस्था, निद्रा टूटके चमक आनेके सरिस टूट जाता है, इस करके फिर शब्दस्पर्शादि-संकुल विकर्म में आना पड़ता है। इस प्रकारसे प्रतिदिन नियमित क्रियामें अभ्यास दृढ़ होनेके पश्चात् विकम का वेग क्रम अनुसार क्षीण, और कर्मका वेग प्रवल होता है; तब क्षणस्थायी अकम स्थिति धीरे धीरे बहुक्षणस्थायी होता है। बहुक्षणस्थायी अकम स्थिति भोग करते करते जब जब मन मैं-मय हो जाता है, तब विकम में उतर आनेसे भी* और विकर्म भोगसे अभिभूत होने नहीं पड़ता, कारण यह है कि चैतन्य * निद्राका परिपाक करके शारीरिक ग्लानि नष्ट होक निद्रा जैसे आप हो आप भंग हो जाती है, अकर्म स्थिति वा समाधि भोग भी वसे परिपाक पाके मनमें शान्ति सञ्चार करके आपही आप भंग हो जाता है ।। १८ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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