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________________ २०३ चतुथ अध्याय कि, कर्ममें और फंसना न पड़ेगा, वह लोग भी कर्मको त्याग नहीं किये थे, वह यथारीति कर्मका आचरण करते ही चले गये । इसीलिये भीगुरुदेव कहते हैं-अर्जुन ! तुम कर्म करो, पूर्व पूर्व मुमुक्षुगणने जिस प्रकारसे कर्म किया था, तुम भी उसी प्रकारसे प्राणायाम रूप प्रथम कर्म किया करो ॥ १५ ॥ किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १६ ॥ अन्वयः। कर्म किं अकर्म ( तुष्णीमासनं ) किं इति अत्र ( अस्मिन् विषये) कवयः ( मेधाविनः, विवेकिनः ) अपि मोहिताः ( मोहं गताः ), ( अतः ) ते ( तुभ्यं) अहं तत् कर्म (कम्माकम्मं च ) प्रवक्ष्यामि, यत् ज्ञात्वा अशुभात् (संसारांत् ) मोक्ष्यसे ।। १६ । अनुवाद। कर्म क्या ? अकर्म भी क्या ?-इस विषयमै कवि लोग भी मोहित होते हैं; अतएव मैं तुमको उसी कर्मका विषय कहता हूँ जिसे जाननेसे अशुभसे मुक्ति लाभ कर सकोगे ॥ १६ ॥ व्याख्या। जो प्रतिकथामें नवीन ( नये नये ) भाव प्रकाश करते हैं, उनकी कवि कहते हैं। जो भावावस्थाके शुरूसे प्रारम्भ करके, प्रतिदिनके अभ्याससे थोड़ा थोड़ा अग्रसर होते होते,भावातीत होने जाते हैं, उनमें प्रति क्रमसे नये नये अलौकिक घटनावलीका प्रकाश तथा विवेक-ज्ञानका उदय होता है, इस करके वह भी कवि; फिर जो क्रियाकांडके प्रथमसे आरम्भ करके नित्य अभ्याससे ज्ञानावस्थामें पहुंचनेके लिये अग्रसर होते हैं, उनके अन्तरावरणके दिन पर दिन क्षय होते रहनेसे, क्रम अनुसार तत्त्व समूह कारणके साथ नूतन प्रकारसे उनके दृष्टिगोचर होते रहते हैं,-जाग्रत अवस्था में पुनरावृत्ति होनेसे भी, उसी दृष्ट तत्त्व समूहका स्मरण रहता है, इस करके, पुनराय क्रियाकालमें उनका पथ सुगम होता है, यह मेधा शक्ति तथा तत्वज्ञान
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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