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________________ चतुर्थ अध्याय १६६ लम्ब-भावसे व्योमचारी होनेसे तथा और कोई प्रतिबन्धक न रहनेसे, शान्ति वा कैवल्यस्थिति शीघ्र आता. है। यह एकवारगी स्थिर निश्चय है॥१२॥ चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ १३ ॥ अन्वयः। गुणकर्मविभागशः ( गुणानां कर्मणां च विभागैः) मया चातुर्वर्ण्य ( चत्वार एव वर्णाः ) सृष्टं, तस्य कतारं अपि मां अकर्तारं अव्ययं विद्धि ॥ १३ ॥ अनुवाद। गुण और कर्म विभागसे मैं चारो वर्णों का सृजन किया हूँ, उसके कर्ता होनेसे भी मुझको अकर्ता तथा अव्यय जानना ॥ १३ ॥ ... व्याख्या। मानुष-लोकमें सिद्धि वा नैष्कर्म्यावस्थाकी प्राप्ति शीघ्र होता है सही, किन्तु शक्तिलाभ होता नहीं; क्योंकि, वर्णमेद करके अधिकारी भेद है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के चार वर्ण; ये सब सत्त्व, रज, तमः इन तीन गुणोंके कर्म विभागके अनुसार अलग अलग किया हुआ है। सत्त्वका कम्म प्रकाश करना, रजोका कर्म क्रिया करना और तमोका क्रिया स्थिर करना है। शरीरमें तीन गुण सब समयमें समान नहीं रहते; विषय-संसर्ग भेद करके मनमें जो भावान्तर होता है, उसमें गुणका भी तारतम्य होता है। शरीरका सत्वप्रधान अवस्थामें अन्तराकाश शुभ्र ज्योतिसे परिपूर्ण होता है, उसमें विश्वके जो कुछ सब स्थिर भावसे प्रकाश पाता है। यह विश्वप्रकाशक वर्ण ही ब्राह्मणवर्ण है, शरीर में सत्त्वरजके प्रधान होनेसे अन्तराकाश फीका लाल रंगसे रंजित होता है; तब जो कुछ प्रतिफलित होता है, वह सब चंचलतामय तथा तेज करके परिपूर्ण है; यह तेज और चंचलतामय वर्ण ही क्षत्रियवर्ण है। शरीरके रजस्तम प्रधान अवस्थामें अन्तराकाश जरा हुआ ( काला मिला हुआ) लाल रंग करके रंजित होता है; इस समयमें कोई विम्व ही लक्ष्य होता नहीं; जो
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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