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________________ १६८ श्रीमद्भगवद्गीता योगमार्गमें देवताओं की आराधना करनी होती है; अर्थात् मनके भीतर आकांक्षा वा कामना रहनेसे, प्रति चक्रमें कर्म करते करते एक एक कर्मके परिपाक होनेसे ही उसी उसी कर्मके अधिष्ठात्री देव देवी साधकके लक्ष्यस्थलमें आविर्भूत होके काम्यफल देते हैं; मनके भीतर कामना हेतु बहुभावके वर्तमान रहनेसे, देवदर्शन होनेसे भी, बहुभावके बन्धनमें पड़के उसी उसी कर्मफलका भोग करना ही पड़ता है, कम्मक्षय होता नहीं;-सुकृति लाभ होता है सही, किन्तु शान्ति लाभ होता नहीं- "मैं” होने सकते नहीं। किन्तु मानुष-लोकमें कर्म अनुष्ठित होनेसे, सिद्धि अर्थात् प्राप्तिकी प्राप्ति जो कैवल्यशान्ति, सो शीघ्रही मिलता है। मन् = वेद अर्थात् ज्ञान, उ= स्थिति; ज्ञान जिसमें स्थित होवे सोही मनु वा मन है। इसी मनु वा मनसे जो सब वृत्ति उत्पन्न होता है, वही मनुष्य वा मानुष। इन मनोवृत्तिकी उत्पत्ति स्थान ही मानुष-लोक। भ्र मध्यस्थ आज्ञा ही मनके स्थान है। मन विशुद्ध अवस्थामें शुद्ध सत्वमय है। इस अवस्था में यह मन सुषुम्नाके अन्तर्गत ब्रह्मनाड़ीके भीतरमें जो शुद्ध सत्त्वमय ब्रह्माकाश है, उसको आश्रय करके नीचे भूलाधार पर्यन्त व्याप्त हो के प्रकाश पाता है; पश्चात् रजोमय प्राणके साथ मिलनेसे ही मन क्रियाशील होता है, तब उससे नाना वृत्तिका उदय हो के भूर्भुव आदि लोक समूहका प्रतिपालन होता रहता है, इस शुद्ध सत्व मय मनके आश्रय स्थान ब्रह्माकाश ही मानुष-लोक है। इस मानुष-लोक में कर्मज सिद्धि क्षिप्र ( शीघ्र ) होता है, अर्थात् क्रिया-कालमें, किसी चक्रके प्रति वा अगल बगलका किसी चीजको लक्ष्य न करके, एकमात्र अतीव सूक्ष्म ब्रह्मनाड़ीके आकाशको अवलम्बन करके गुरूपदेश अनुसार प्राण-चालन करने से ही उसके ऐसे ही प्रभाव है कि, मनके आकांक्षा मिट जायके विषय-संग कट जाता है, और लक्ष्य एकमात्र तारकब्रह्म नादविन्दुमें अटक जाता है । इसलिये इस समय मन निरा
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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