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________________ १६३ चतुर्थ अध्याय साधु है; और काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्षा, घृणा प्रभृति साधन-प्रतिकूल वृत्ति ही दुष्कृत है। पूर्व श्लोककी व्याख्यामें इष्टदेवके जैस नाना प्रकारके रूपसे आविर्भावकी बात कही गई है, उनको उसी उसी प्रकार विविध मूर्तिमें आविर्भूत होनेसे, वो सवृत्ति समूह प्रबल होती है, संसारके खिंचाईसे किसी प्रकारसे नष्ट नहीं होता; और वह दुष्कृत वा असत् वृत्ति समूह विनष्ट हो जाता है,-मनमें उदय होके और विषयमें विमोहित कर नहीं सकता। इस प्रकारसे सवृत्तिके परित्राण, और असत् वृत्तिके नाश होनेसे ही धर्म-संस्थापन होता है। संस्थापन-सम् =समान + स्थापि = स्थापन करना+अन् । -साम्यभावमें स्थापन करना ही संस्थापन है । धर्म-चौबीस तत्वके समष्टि वृत्ति वा क्रिया है, अतएव विषमता-समन्वित। यह धर्म लययोगसे समेट आके चिन्मय चैतन्यमें अटक पड़नेसे ही, स्थिर समान होके मिल जाता है; वही धर्मके संस्थान है । अर्थात् धर्मको कोई काम काज करने न देके चुपचाप बैठायके रखनेका नाम “धर्मसंस्थापन" है। ___ साधनाकी उन्नत्तिके साथ गुरुकृपासे आवरण भेद होके कूटस्थमें जैसे जैसे सच्चिदानन्द-ज्योतिर्मयका प्रकाश होता है, उसी उसी समय साधक आनन्दमें विभोर हो जाते हैं। संसारका अनित्यत्व तथा ब्रह्मका नित्यत्व हृदयंगम करके वैराग्यादिके साथ अधिकतर उद्यमसे प्रयत्न करते हैं, साधन-क्लेश करके भीत वा संकुचित नहीं होते; जिसलिये उनको और संसारमें मोहित होना नहीं होता वह परित्राण पाते हैं ॥८॥ जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥६॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! मे ( मम ) एवं ( स्वेच्छया कृतं ) दिव्यं ( अलौकिकं) जन्म कर्म च यः तत्त्वतः ( स्वरूपतः ) वेत्ति, सः देहं (देहाभिमानं ) त्यक्त्वा पुनर्जन्म ( संसारं ) न एति (न प्राप्नोति), (किन्तु ) मा एति ॥९॥ -१३
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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