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________________ १६२ श्रीमद्भगवद्गीता परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ८ ॥ अन्वयः। साधूनां परित्राणाय, दुष्कृतां विनाशाय, धर्मसंस्थापनार्थाय च युगे युगे सम्भवामि ॥८॥ अनुवाद। साधुओंकी रक्षा, दुष्कृतोंका विनाश और धर्मसंस्थापन करनेके लिये युग युग में मैं अवतीर्ण होता रहता हूँ ।। ८॥ व्याव्या। पूर्व श्लोकमें श्रीगुरुदेव अपने आविर्भावकी काल निर्णय करके इस श्लोकमें आविर्भावके कारण निर्देश करते हैं। साधु-स= सूक्ष्मश्वास + आ = आसक्ति+ध्=धृति + उ = स्थिति -सूक्ष्मश्वासमें आसक्ति देके जो लोग धैर्यमें स्थिति लाभ करते हैं अर्थात् निवृत्ति मार्गमें जो लोग धैर्यशील हैं, वे सबही साधु है। साधु होनेके लिये जो जो वृत्तिके दरकार है वह सबही साधु है, और जो जो वृत्ति अनिष्टकर है वह सब दुष्कृत (दुः+कृत् = असत् वृत्ति) है। विवेक, वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा प्रभृति साधनानुकूल वृत्ति ही वत्त न करनेसे निष्कृति पानेके लिये क्षुद्र ब्रह्माण्डमें (मानव शरीर में ) जिस प्रकार क्रियाका प्रयोजन है वही साधन-मार्ग है। मानव इच्छा करनेसे ही अपसे के भीतर कालप्रवाहके परिवर्तन कर सकते हैं, जगतके स्वाभाविक परिवर्तनके लिये उनका अपेक्षा करना नहीं पड़ता। संसार-मार्गमैं तथा साधन मार्गमें कालस्रोतका क्रम एक प्रकार होनेसे भी, संसारमें उस क्रमसे विकारकी वृद्धि होती है-प्रवृत्तिका प्रसार बढ़ जाता है; माधना मार्ग में उस क्रम में विकार बीत जाके निविकार अवस्था आती है। अतएव संसार-मार्ग में और साधन-मार्गमें काल विभागसे युगधर्मके विभिन्न प्रकारको क्रिया प्रकाश पाता है। मनमें याद रखना कि, संसार और साधना एक नहीं है। संसार-प्रवृत्ति, साधना-निवृत्ति है, संसार में जो सुख है, साधनामें सो दुःख, संसारमैं जो दुःख, साधनामें वही सुखका कारण है। क्योंकि, विषय भोगसे जो सुख, उसमें ज्ञान लोप पावें; और विषय-विच्छेदसे जो दुःख, उसमें ही मनुष्यको आत्मानुसन्धानमें प्रवृत्त करता है ॥ ७॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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