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________________ तृतीय अध्याय १७७ और करण विचारत भिन्न होनेसे भी क्रियामें एकही दिखाते हैं। इस अन्तविषयकी अपेक्षा मन श्रेष्ठ है। कारण, मन पंच महाभूतोंके समष्टि सात्विकांशसे उत्पन्न हुआ है, और दश इन्द्रिय पंच महाभूतों के पृथक सात्तिकांश और पृथक् राजसांशसे उत्पन्न, मनके संकल्पविकल्पसे ही चालित है। मनकी अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है; कारण मन अन्धा है, बुद्धि प्रज्ञावती है; मनकी क्रिया विचार विहीन त्याग-प्रहण, और विचारसे सत् असत् निश्चित करनेकी क्रिया बुद्धिकी है। इस बुद्धिके भी ऊपर जो है, वही आत्मा है। यह आत्मा सकलके साक्षी स्वरूप हो करके सकलके अन्तरमें अवस्थित है; यही देही है; इसको काम विमोहित करता है, किन्तु स्पर्श कर नहीं सकता। (यही देही जीव वा आत्मतत्त्व है, आत्मतत्त्वसे महत्तत्त्व श्रेष्ठ है; महत्से अव्यक्त और अव्यक्तसे पुरुष श्रेष्ठ है, पुरुषके ऊपर और कुछ नहीं; वह पुरुष ही परागति है ) ॥४२॥ एवं बुद्धः परं बुद्ध, संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥ ४३ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो। एवं बुद्धः परं ( आत्मानं ) बुद्धा ( ज्ञात्वा ), आत्मना ( आत्मबुद्धया) आत्मानं (कामस्य अधिष्ठानं इन्द्रियादीनी ) संस्तभ्य ( संयम्य, निश्चलं कृत्वा ) कामरूपं दुरासदं ( दुद्धर्ष) शत्रुजहि ( मारय ) ॥४३॥ अनुवाद। हे महाबाहो ! आत्माको इस प्रकार बुद्धिसे श्रेष्ठ जानके, आत्मासे मन बुद्धि इन्द्रिय सकलको निश्चल करके दुर्द्धर्ष कामरूप शत्रुका विनाश करो ॥४३॥ व्याख्या। बुद्धि कामके आश्रय कह करके, विषय और इन्द्रियोंके संस्रवमें विकार प्राप्त होती है; किन्तु अात्मा निर्विकार है, इन सबका साक्षी स्वरूप है; अतएव आत्मा बुद्धिसे भी श्रेष्ठ है। हे साधक ! यही आत्मा तुम हो अर्थात् तुम्हारी प्रकृत स्वरूप है। तुम अपनेको इस प्रकार बुद्धितत्वसे भी श्रेष्ठ जान करके, निश्चयात्मिका बुद्धि वा -१२
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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