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________________ १७६ श्रीमद्भगवद्गीता इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतन्तु सः ॥ ४२ ॥ अन्वयः। इन्द्रियाणि पराणि आहुः, इन्द्रियेभ्यः मनः परं, मनसः तु बुद्धिः परा, तु ( किन्तु ) बुद्ध : परतः यः ( तत्क्षाक्षित्वेनावस्थितः ) सः ( एव देहीशब्दोक्त आत्मा ) ॥ ४२ ॥ अनुवाद। इन्द्रिय सकल को श्रेष्ठ कहते हैं। मन इन्द्रियांसे श्रेष्ठ है। मनसे श्रेष्ठ बुद्धि है। किन्तु बुद्धि से जो श्रेष्ठ है वही देही है ।। ४२ ॥ व्याख्या। इन्द्रिय दश हैं, पांच ज्ञानसाधन और पांच कम्मसाधन हैं, इन दश इन्द्रियोंसे ही बहिविषयका भोग होता है। स्थूल पदार्थ मात्र ही बहिविषय है, पंच सूक्ष्म भूतोंके पंचीकरणसे ही उत्पन्न होता है। यह स्थूल बहिर्नोग्य पदार्थसमूह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध रूपसे भोग होता है, भोग करने का कारण होता है इन्द्रिय इसलिये इन स्थूल देहादि बहिर्नोग्य पदार्थसे इन्द्रिय सकल श्रेष्ठ है। किन्तु इन्द्रिय सकल शब्दादिका गुणवाचक पदार्थ वा शक्तिसे आबद्ध एवं चालित है। यही गुणवाचक पदार्थ ही अन्तर्विषय वा तन्मात्रा,जो योगावलम्बनसे सकल इन्द्रिय रोध करके सूक्ष्म रूपमें शरोरके भीतर भोग किया जाता है, जो कारण स्वरूप, और इन्द्रिय सकल जिसके करण तथा बहिविषय जिसके कार्य हैं। अतएव यह अन्तविषय इन्द्रियकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। उपनिषत्में इस अन्तविषयको "अर्थ' कहके उल्लेख किया हुआ है * और इन्द्रियसे श्रेष्ठ कहा हुआ है। परन्तु गीतामें इसका उल्लेख नहीं; इसका कारण, कायके कारण • "इन्द्रियेभ्यः पराः पर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः । मनसन्तु पराबुद्धिः बुद्धरात्मा महान् परः॥ महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषो परः। पुरुषाम्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः"-कठोपनिषत् ।।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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