SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ श्रीमद्भगवद्गीता रखते हैं, परन्तु गुरुवाक्यमें अटल विश्वास स्थापन करके क्रियामें प्रवृत्त होते हैं, और दिन पर दिन यथा नियम क्रम अनुसार क्रिया करते जाते हैं, दूसरे किसी कार्यको उपलक्ष्य करके वा आलस्य करके किसी दिन क्रिया समयमें आगा पीछा नहीं करते अथवा विरत नहीं होते, वही सब साधक कर्म द्वारा कर्मबन्धनसे मुक्ति पाते हैं, दूसरे नहीं पाते ( नीचेका श्लोक देखो ) ॥ ३१ ॥ ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढ़ांस्तान् विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३२ ॥ अन्वयः। ये तु मे एतत् मतम् अभ्यसूयन्तः ( निन्दन्तः सन्तः ) न अनुतिष्ठन्ति, अचतसः ( विवेकशून्यान् ) तान् सर्वज्ञानविमूढ़ान् नष्टान् विद्धि ।। ३२ ॥ अनुवाद। किन्तु जो सब मनुष्य असूयायुक्त होकरके मेरे इस मतका अनुष्ठान नहीं करते हैं, उन सबको विवेक शून्य सर्वज्ञानविमूढ़ तथा नष्ट ( विनाश प्राप्त ) कह करके जानना ॥ ३२ ॥ व्याख्या। जो सब मनुष्य पूर्व श्लोकके मतानुसार श्रद्धावान, असूयाविहीन तथा नित्य क्रियाशील नहीं हैं, (जो मनुष्य यथानियमसे प्रतिदिन क्रिया नहीं करते, पराये गुणमें दोष देते हैं, अपनी बड़ाई करते हैं, गुरूपदेशके अनुष्ठानमें उत्साह नहीं करते ), वह सब “अचेतस"-विवेकशून्य, अर्थात् वह सब मूढजना तत्व समूहका ज्ञानलाम नहीं कर सकते; अतएव मुक्ति तो दूर की बात है, वह सब "सर्वज्ञानविमूढ़" अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-इन सब विषयोंके ज्ञानमें विमूढ़ (बात्मज्ञानहारा विषयमतवाले ) हो करके नष्ट होते हैं, अर्थात् संसारावर्त्तमें पड़ करके अचेतन सरिस चक्कर खाते रहते हैं, जानना। (श्रतएव साधक ! तुम अति सावधानीके .. साप तथा यतनके साथ आत्मक्रियामें रत होना ) ॥३२॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy