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________________ तृतीय अध्याय १६१ (३) "निर्ममः"-"मेरे” कहनेको कुछ नहों, "मैं" ही "मैं"इस प्रकार दृढ़ धारणासे निम्ममत्व आता है। (४) "विगतज्वरः।-क्रियाकालमें "और नहीं सकता हूँ. अब थोडासा दम ले लू; फलाना चीज वा फलाना काम थोड़ा करलू, पश्चात् क्रिया करेंगे"-इत्यादि प्रकार अलसता तथा कातरताका त्याग करके अर्थात् किसी प्रकारका सन्ताप अन्त:करणमें न ले करके जो अवस्थान है -- उसीको विगतज्वर कहते हैं। (५) "अध्यात्मचेता”- मनको कूटस्थमें बद्ध करके तत्पदका भावना और अर्थके साथ आत्ममन्त्रका उच्चारण करनेसे ही अध्यात्मचेता हुआ जाता है। उस प्रकार अवस्थापन्न होके अर्थात् उन सब अस्रोंसे सज्जित होके साधन-समरमें युद्ध करना होता है (प्रवृत्त होना पड़ता है)॥३०॥ ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ ३१ ॥ अन्वयः। ये मानवाः श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः ( सन्तः ) मे इदं मतं नित्यं अनुतिष्ठन्ति ( अनुवत्तन्ते ) ते अपि कर्मभिः मुच्यन्ते ।। ३१ ॥ अनुवाद। जो सब मनुष्य श्रद्धावान् तथा अस्याविहीन हो करके हमारे इस मतका नित्य अतुष्ठान करते हैं, वही सब मानव सकल कर्मसे मुक्त होते हैं ॥३१॥ व्याख्या। गुरु वेदान्त-वाक्यमें विश्वास और बाधाशून्य होकरके उसके अनुष्ठानमें रत रहनेका नाम श्रद्धा, और परगुणमें दोष न देखनेका नाम असूया-विहीनता है। जो पुरुषः गुरूपदिष्ट क्रियामें किसी प्रकारका दोष नहीं देखते हैं, अर्थात् "गुरुदेव मुझको यह कैसे काम काजमें लगाते हैं, यह कुछ नहीं है। इस प्रकारको चिन्ता नहीं
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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