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________________ तृतीय अध्याय . १५१ इस करके विश्वकर्मा सम्पन्न होता है, परन्तु अपने कुछ नहीं करते ; अज्ञानताके वेश करके मायाके प्रेममें मतवाला हो करके अपनेमें (पराया दिया हुआ ) कृतित्व ले करके आबद्ध मात्र थे ॥ २२ ॥ यदि ह्यहं न क्र्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वानुवर्त्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ २३॥ अन्वयः। हे पार्थ । यदि हि अहं जातु ( एकवारमेष ) अतन्द्रितः ( सन् ) कमणि न वर्त य, ( तहिं ) मनुष्याः ( मनोवृत्तयः ) सर्वशः मम वर्त्म अनुवतन्ते ( आत्मभावं प्राप्नुवन्ति ) ॥ २३ ।। __ अनुवाद। हे पार्थ ! कदाचित् एक दफे मैं अतन्द्रित हो करके कर्म में न रहूँ, तो ऐसा होनेसे मनुष्य सकल सर्व-प्रकारसे हमारे ही पन्थाका अनुवर्तन करेगा॥ २३ ॥ व्याख्या। अब श्रीगुरूदेव साधकको दिखलाते हैं कि, अतन्द्रित* हो करके, अर्थात् विषय-संस्रव परित्याग का के व्यवसायात्मिका बुद्धियुक्त हो करके, कमसे पृथक् होनेसे, मनप्रसूत समुदय वृत्ति की पृथक् सत्त्वा एकबारगी उड़ जाके, आत्मा की जो अनन्त विस्तृत निश्चल अवस्था है, उसी अवस्थाकी प्राप्ति होती है, तब-मैं ही सब, मैं-- नहीं बोलनेके लिये कुछ नहीं है-इस प्रकारका ज्ञान होता है ** ॥ २३ ॥ ____ * क्रिया करते करते समाधि लाभ होनेके समय मन यदि विषय का अवलम्बन करके निष्क्रिय हो जाय, तो “अतन्द्रित" होना नहीं होता, क्योंकि विषयमें मन रखना ही तन्द्रा, आत्मामें मन रखना ही जागरण है। मन लय होने के समय "चित्त" का अबलम्बन रहनेसे ही अतन्द्रित निष्क्रिय अवस्था होता है ।। २३ ॥ ___** इस प्रकार होने का कारण यह है कि, अहंवृत्ति रहनेसे, चुम्बक बर्तमान लोहके चंचलता सदृश, भिन्न भिन्न कोषके अवरणमें निज निज पृथक सत्त्वाको स्थिर रखके क्रियाशील होता है; अहं वृत्ति मिट जानेके बाद समुदय क्रिया शेष हो जाती है। ( कल्पना करके समझना तथा भाषामें व्यक्त करना ठीक नहीं होता । उस अवस्थाकी प्राप्ति न होनेसे, यथार्थ भाव हृदयंगम नहीं होतां ) ॥ २३ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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