SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० अवतरणिका नहीं रहता, एकदम वृत्तिविहीन निरालम्बावस्था प्राप्त होकर अपने कारणमें मिलित वा युक्त होता है, तबही मनकी वा चित्तकी निरुद्ध अवस्था कही जाती है। । . इन पांच अवस्थाओंको प्रथम तीन अवस्था ही साधारण है, शेष दो अवस्थाको अभ्याससे आयत्त करना पड़ता है। चित्तवृत्तिकी उस निरोध अवस्थाका नाम ही योग है। उस उस निरोध-अवस्था प्राप्तिके लिये क्या करना पड़ता है और निरोधअवस्था प्राप्तिके पहिले कौन कौन अवस्था भोग करनी होती है और पीछे भी क्या होता है, वही सब बातें अर्थात् योगके साधन प्रकरण तथा पूर्व और परावस्था ही गीतामें शुरूसे आखिर तक लिखी है । गीता अध्ययन करनेसे ही यह बात स्पष्ट मालूम होता है। इस कारण उसको सप्रमाण करना आवश्यक नहीं है। साधनाका तीन अवस्थायें हैं। पहिले विश्वास करके क्रिया करना होता है, उसीसे विश्वास दृढ़ होनेसे भक्तिका विकाश होता है। भक्तिके परिपाकसे ज्ञानका उदय होता है। साधनाका यह विश्वासभक्ति-ज्ञान ही यथाक्रमसे गीताका कर्म उपासना और ज्ञान यह तीन विभाग हैं। गीताका प्रथम छः अध्याय कर्म, द्वितीय छः अध्याय उपासना और आखिरी छः अध्याय ज्ञान है। गीता इन तीन षटकों में विभक्त है। गीताका एकके बाद एक अध्याय योगसाधनाका ही एकके बाद एक क्रम है। योगसाधनमें प्रवृत्त होकर साधक एक एक करके जैसी जैसी अवस्थाको प्राप्त होता है, वही गीतामें एक एक अध्याय करके लिखा है। उसका क्रम ऐसा है यथा . साधक मायाके वशसे “अहं ममेति" संसार मोहसे मोहित रहनेके लिये पहलेही वैराग्य द्वारा संसार-वासनाको नाश करने में उद्यत होते ही विषादग्रस्त होते हैं (१ म अ.); बाद इसके गुरुकृपासे
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy