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________________ १२३ द्वितीय अध्याय व्याख्या। पूर्वके श्लोकके अनुसार अवस्थाको प्राप्त हो करके विचरण करनेसे जो अवस्था होती है, वही ब्रह्मज्ञानकी अवस्थाब्राहीस्थिति है। इस ब्राह्मीस्थितिमें सब कुछ ब्रह्मामय हो जानेसे,. बाहरके इन्द्रिय-व्यापार समुदय सम्पन्न होनेसे भी, भेदज्ञान के अभावसे भीतर बाहर एक हो जाता है, इसलिये मोहित होना नहीं पड़ता। इसलिये इस अवस्था में विषयके भीतर रह करके भी शरीर-त्याग होनेके समय ' यत्र यत्र मनो याति तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते" सबही ब्रह्ममय लक्ष्य होनेसे, अपुनरावृत्ति गति रूप ब्रह्मनिर्वाणप्राप्ति होती है ॥ ७२ ।। "शोकपंकनिमप्र यः सांख्ययोगोपदेशत । उज्जहारार्जुनं भक्तं स कृष्णः शरणं मम ॥" सदशत। इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र श्रीकृष्णार्जुनसम्बादे सांख्ययोगो नाम 'द्वितीयोऽध्यायः॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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