SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय १२१ मुनि ("मुनिः संलीनमानसः" ) है। भूत सकल जब जाग्रत रहता है, उन द्रष्टा मुनिके लिये तभी निशा है, क्योंकि उस समय मन विषय-निष्ठ होता है, आत्मक्षेत्र विषयावरण करके श्रावृत रहता है, आत्मज्योति न रहने से आत्ममुखी दृकशक्तिका पथ बन्द होता है, मन भी विषय संस्रवमें आनेसे उतने क्षणके लिये आत्मकियामें निश्चष्ट रहता है ॥६६॥ . आपूय॑माणमचलप्रतिष्ठ, समुद्रमापः प्रविशान्ति यद्वत् । तद्वत् कामा य प्रविशान्ति सर्वे, __स शान्तिमाप्रोति न कामकामी ॥ ७० ॥ अन्वयः। यद्वत् आपः आपूर्यमाणं अचलप्रतिष्ठं समुद्र प्रविशन्ति तद्वत्सर्वेकामाः यं प्रविशन्ति, सः शान्ति आप्नोति, न (तु ) कामझामी ॥७॥ अनुवाद। जसे जलराशि आपूय॑माण अचलप्रतिष्ठ समुद्र में प्रवेश करता है, उसी प्रकार समुदय कामना जिसमें प्रवेश करती है, वह उस शान्तिको प्राप्त होता है कामकामो न होता ॥ ७० ॥ व्याख्या। समुद्र जैसे सदा काल नदी प्रभृतिके जलसे परिपूरणशोल है, किन्तु समुद्रके अवयवको किसी प्रकारको घटी बढ़ी न रहनेसे, उनकी प्रतिष्ठा अचल है। वैसे ही शम्भवी द्वारा जिन्होंने मनको बिन्दुसागरमें इबा देके ( क्रिया अनुष्ठान-सापेक्ष ) अनन्त उदारता लाभ की है, कामना सकल उनके ऊपर आ पड़के बिलीन होती रहती है, उनसे किसी प्रकारकी कामना उठ करके भी विषय अभिमुखमें प्रवाहित नहीं होती ; इसलिये इस प्रकार पुरुष ही ( साधक ही ) शान्ति पाते हैं। किन्तु जिन्होंने कामकामी अर्थात् जो मनुष्य मनको अनन्त में फेंकने में आशक्त हो करके, विषयको शान्तिका प्रालय मनमें समझ प्राकृतिक आकाक्षामें पड़ता है, वह शान्तिको नहीं पाता ॥७॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy