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________________ . ११७ द्वितीय अध्याय अभी भी इच्छा होती है और भी कुछ मिल जाय; वैसे मनमें कल्पना कर नहीं सकते, इतनी आशाका पूरण हुआ है, तथापि आकांक्षा मिटती नहीं ; -इसी को ही माया कहते हैं। इस अपूरणीय आकांक्षासे ही क्रोधोत्पत्ति होती है। क्रोध उत्पन्न होनेसे ही मोह आता है अर्थात् कार्या-कार्यका विवेक नहीं रहता। सम्मोह पानेसे ही स्मृतिविभ्रम होता है, अर्थात् स्थूल-शूक्ष्म कारणातीत वाक्य मनके अगोचर सत्-चित्-आनन्द खरूप जो “मैं” हूं उसे भूल करके अनित्य देहादिमें आत्म ज्ञान करके "मैं-मेरा" ज्ञानरूप भ्रमबन्धनमें पड़ना होता है। इस प्रकार भ्रममें पड़नेसे ही बुद्धिनाश होती है अर्थात् मैं ही “मैं” यह निश्चयात्मिका बुद्धि अर्थात् स्थिर विश्वास नष्ट होके संशयात्मिका वृत्ति उपस्थित होती है। इस प्रकार अविश्वाससे ही नाश अर्थात् मृत्यु होती है ; कारण अविश्वासियोंके मन (बुद्धि) प्राणप्रयाण कालमें (शरीरत्याग समयमें ) व्यवसायात्मिका न हो करके पुनः शरीर धारण करनेके बीज-स्वरूप विषय-स्मरण करता रहता है ( २७ श्लोककी व्याख्या देखो.) ॥ ६२.॥ ६३ ॥ रागद्वषवियुक्तस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । . आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) विधेयात्मा ( विधेयो वशवर्ती आत्मा मनो यस्य सः) आत्मवश्यैः रागद्वेषवियुक्तः इन्द्रियः विषयान् चरन् प्रसादं ( शान्ति ) अधिगच्छति ( प्राप्नोति ) ॥ ६४ ॥ ___ अनुवाद। किन्तु जो विधेयात्मा-संयत-चित्त हैं, वह आत्म-वशीभूत रागद्वेष-विहीन इन्द्रिय समूहसे विषय में विचरण करके भी अर्थात् विषय समस्त भोग करके भी शान्तिलाम करते हैं ॥ ६४ ॥ ___ व्याख्या। ६२-६१ श्लोकमें पुरुषको दो अंशमें विभक्त (बटवारा) किया हुआ है, -प्रथम विषयध्यान करने वाला असंयतचित्त पुरुष, दूसरे निष्कामी संयतचित्त पुरुष। असंयमी ६२-६३, श्लोकके क्रम
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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