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________________ द्वितीय अध्याय अनुवाद। हे अर्जुन ! वेद सकल गुण्य विषयक हैं; अतएब निन्द, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम तथा आत्मवान् होकर त्रिगुणरहित हो जावो ॥ ४५ ॥ व्याख्या। जानना जो कुछ है वह समस्त वेद है। वेद-ऋक्, यजु, साम, अथर्वण इन चार भागमें विभक्त है। त्रैगुण्य ही इस वेद का विषय है। रजः सत्त्व तमः-ये तीन गुण हैं; इन गुणके समष्टिका नाम त्रैगुण्य है। रजोगुणका धम-क्रिया, फल-दुःख, (कारण, काम करते जानेसे ही परिश्रम है)। सत्त्वका धर्म-प्रकाश ( जो आपही आप होता है, निजबोधरूप), फल-सुख है। तमोका धर्म --स्थिरता (नाश ), फल-मोह है। इन तीनोंका मिश्र धर्मसुख-दुःख-मोहका सामञ्जस्य; फल-आनन्द है। बीजकी अकुरोत्पादिका शक्ति जैसे जल, वायु, और तेजके सहारे बिना प्रकाश नहीं पाती, वैसे ये तीन गुण परस्पर पृथक रहनेसे अपनी अपनी क्रियाका प्रकाश करके दिखा नहीं सकते ; तीनोंके परस्पर मिश्रणसे ही प्रत्येककी क्रिया खिल कर बाहर निकल पाता है। किन्तु उस मिश्रणमें यदि प्रत्येकका अश समान ( बरोबर )हो रहे, तो किसी क्रियाका प्रकाश नहीं होता, साम्य भाव आता है; असमान भागसे ही क्रिया खिलती है। मूलाधारमें तमःका शेष हो करके सत्त्वका प्रारम्भ तथा रजोका पूर्ण विकाश होता है; स्वाधिष्ठानमें रजः बारह आना, सत्त्व चार आना; मणिपुरमें रजोसत्त्व बरोबर समान समान (तृतीयचित्र देखिये )। ऊँचे दिकमें मणिपुर पार होनेसे ही रजोका परिमाण सत्त्वसे क्रम क्रम करके अधिक से अधिक कम होता रहता है। इसलिये मूलाधारसे मणिपुर पर्यन्त ही रजः प्रबल है। आसनमें बैठनेसे पहले ही कर्ममय रजः का अवलम्बन करके, अर्थात् स्थूलशरीरगत करण समूहमें बल प्रयोग करके, आसक्ति पूर्वक प्राण-चालन करना पड़ता है; जबतक प्राण सूक्ष्म होकरके मनको लेकर बनाके भीतर
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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