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________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ कर्म दो प्रकारके हैं,-सकाम और निष्काम; बहिर्मुखमें स्थूल शरीर और अन्तमुखमें सूक्ष्म शरीर द्वारा यह किया जाता है। इसलिये कर्मकी एक सीमा है। बाहरमें जैसे अत्यधिक परिश्रम करके शरीरके क्लान्त और अचल होनेसे काम काज कुछ होता नहीं, निश्चष्ट हो पड़ता है, भीतरमें भी वैसे कर्म चरम अवस्थाको प्राप्त होनेसे ही बिलकुल मिट कर एक स्थिर भाव आ जाता है। उस स्थिर भावका नाम ही समाधि है। अतएव यह समाधि, क्रियाकी अवश्यम्भावी फल है। किन्तु कर्मके सकाम-निष्कामता हेतु समाधि दो प्रकारको समझना चाहिये । सकाम कर्ममें लय होनेके समय कामना वाले विषयकी स्मृति संस्कारको लेकर विश्राम लेना पड़ता है; समाधि भंग होते ही जाग्रत होनेके साथ ही साथ वो स्मृति भी फिर जाग उठती है; इसीका नाम जड़समाधि है। इसमें विभूति लाभ ही होती है, मुक्ति नहीं होती। निष्काम कर्म करके समाधि लेनेके समय कामना नहीं रहती, इसलिये केवल चतन्यमें हो लक्ष्य रहती है और उसी चतन्यमें ही लीन होना पड़ता है। यह अवस्था छूट जानेसे मनमें वृत्ति मात्र ही उदय नहीं होती, कदाचित यदि वृत्ति भी श्रा जाये तो, क्या जाने मैं कैसे अच्छा रहा, इस प्रकार एक आनन्दरसका नशासे अन्तःकरण मतवाला रहता है; इसका नाम चैतन्यसमाधि वा ब्राह्मीस्थिति है। इस चैतन्यसमाधिके ग्रहणके पहले ही बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है। इसीलिये कहा हुआ है कि आसक्त वालोंकी समाधि होनेसे भी बुद्धि व्यवसात्मिका नहीं होती॥४२॥४३॥४४॥ त्रैगुण्यविषया वेदाः निस्त्रगुण्यो भवार्जुन । निद्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! वेदाः त्रैगुण्यविषयाः (त्रिगुणान्विताः); (त्वं ) निर्द्वन्द्वः नित्यसत्त्वस्थः निर्योगक्षेमः आत्मवान् ( भूत्वा ) निस्त्रगुण्यः (त्रैगुण्यातीतः) भव ॥४५॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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