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________________ एकादशः सर्गः समासः-न चलः अचलस्तस्मिन् अचले। न कुण्ठितमिति अकुण्ठितम् तत् । समम् आगः ययोस्तौ समागसौ । धेनुश्च वत्सश्च धेनुवत्सौ, तयोः हरणं तस्मात् धेनुवत्सहरणात् । हिन्दी-क्रौंच नामक पर्वत में टकराकर भी कुण्ठित ( अटूट ) न होने वाले परशु ( कुठार ) को धारण करने वाले मुझ परशुरामके, एक समान अपराध करनेवाले दो शत्रु हैं, ( अर्थात् आजतक मेरे दो ही शत्रु पैदा हुये हैं ) मेरे पिताकी होमधेनु और वत्स ( बच्छडा ) को बलात् छीननेसे हैहय सहस्रार्जुन, और मेरी कीर्ति को हरण करनेके लिये तैयार तुम। _ विशेष—एक समय माहिष्मती का राजा कार्तवीर्य महर्षि जमदग्नि के आश्रम में आया, और महर्षि की धेनुको छीनकर ( ले गया ) जब परशुरामजी बाहर से आए, और यह सुना तो तुरन्त माहिष्मती में जाकर कार्तवीर्यको मार डाला और अपने पिता की यज्ञधेनु ले आए। तब परशुरामजी की अनुपस्थिति में कार्तवीर्य के पुत्रों ने महर्षि जमदग्नि का वध कर दिया था, परशुरामजी ने आकर यह देखा तो परम क्रुद्ध हुए। और कार्तवीर्य के सब पुत्रों को मार डाला । तब इन क्षत्रियों से बैर हो गया, जो कि रामावतार होनेपर शान्त हुआ ॥ ७४ ॥ क्षत्रियान्तकरणोऽपि विक्रमस्तेन मामवति नाजिते त्वयि । पावकस्य महिमा स गण्यते कक्षवज्ज्वलति सागरेऽपि यः ॥ ७५ ॥ तेन कारणेन। क्रियते येनासौ करणः। क्षत्रियान्तस्य करणोऽपि विक्रमः। त्वय्यजिते । मां नावति न प्रीणाति । तथाहि । पावकस्याग्नेमहिमा स गण्यते यः कक्षवत्कक्ष इव । 'तत्र तस्येव' इति सप्तम्यर्थे वतिः । सागरेऽपि ज्वलति ॥ __ अन्वयः तेन क्षत्रियान्तकरः अपि विक्रमः त्वयि अजिते मां न अवति, "तथाहि" पावकस्य महिमा स गण्यते यः कक्षवत् सागरे अपि ज्वलति । व्याख्या= तेन पूर्वोक्तेन कारणेन क्रियते येन असौ करणः । क्षत्रियाणां =राजन्यानाम् अन्तः = विनाशस्तस्य करणः = साधनमिति क्षत्रियान्तकरणः अपि विक्रमः = मम पराक्रमः त्वयि = राबवे न जितः अजितस्तस्मिन् अजिते = अपराभूते मां = परशुरामं न अवति न प्रीणाति । तथाहि दर्शयति-पुनातीति पावकः, तस्य पावकस्य = वह्न: महिमा = महत्त्वं सामर्थ्यमित्यर्थः । सः गण्यते = कथ्यते यः = महिमा कक्षे इव इति कक्षवत् = तृणवत् सागरे = समुद्रे अपि ज्वलति = दहति । “कक्षौ तु तृणवीरुधौ” इत्यमरः । समासः-क्षत्रियाणाम् अन्तस्य करण इति क्षत्रियान्तकरणः। न जितः अजितस्तस्मिन् अजिते । कक्षे इव कक्षवत् । हिन्दी-इस लिये क्षत्रियों का २१ बार विनाश करने वाला भी मेरा पराक्रम, तुमको बिना जीते मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। क्योंकि अग्नि का प्रताप ( तेज ) वही कहलाता है जो कि घासफूस के समान समुद्र में भी जलता है । अर्थात् जैसे फूस में भड़कता है वैसे ही समुद्र में भड़कर जलनेवाला तेज ही अग्नि का तेज है । अतः तुम को जीतना ही मेरा पराक्रम होगा ॥ ७५॥
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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