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________________ चतुर्दशसर्ग का कथासार २१ भाभी गर्भवती है और उसे श्राश्रमों को देखने की इच्छा है, इसी बहाने रथ में बैठाकर उसे वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आओ । लक्ष्मण ने राम की आज्ञा स्वीकार की और सुमन्त को सारथि बनाकर सुखद रथ में सीता को बैठाकर ले चले। रथ में बैठकर जाती हुई सीता सोचती थी कि मेरे पति मुझे कितना अच्छा मानते हैं, उन्होंने मेरी इच्छा पूरी कर दी । किन्तु वास्तविक रहस्य उसे ज्ञात न था । यद्यपि लक्ष्मण ने रास्ते भर बात छिपाई परन्तु फड़कती हुई दाहिनी आँख से सीता को अनिष्ट की आशंका हो गई वह हृदय से भाइयों सहित राम के कल्याण की कामना करने लगी । रथ से गंगातट तक पहुँचकर लक्ष्मण ने नाव से उन्हें गंगा पार कराई । तब किसी प्रकार साहस करके रुँधे कण्ठ से राम की आज्ञा सीता को सुनाई । सुनते ही सीता मूर्च्छित हो गईं । लक्ष्मण द्वारा मूर्च्छा से जगाने की चेष्टा से होश में आना सीता के लिये और भी कष्टकर हो गया क्योंकि अचेतन अवस्था में तो उसे दुःख का कोई ज्ञान न था । इतना होने पर भी उसने राम को दोष नहीं दिया, प्रत्युत अपने ही भाग्य को कोसती रही । लक्ष्मण ने आश्वासन देकर वाल्मीकि के आश्रम का मार्ग बताया और कहा - स्वामी की आज्ञा से इस कठोर कर्म को करते हुए मुझे क्षमा करें ! सीता का सन्देश सीता उसे उठाकर बोली -- हे वत्स ! तुम दीर्घायु हो । मैं तुमपर रुष्ट नहीं हूँ, क्योंकि तुम पराधीन हो । मेरी सभी सास लोगों को मेरा प्रणाम पहुँचा देना । और कहना कि मेरे गर्भ से होनेवाली सन्तान के लिये शुभ कामना करें । मेरी ओर से उस राजा से कहना कि अग्निपरीक्षा होने पर भी तुमने मेरे साथ यह जो व्यवहार किया वह क्या तुम्हारे विख्यात कुल के अनुरूप है ? सबका कल्याण चाहनेवाले आप मनमानी कैसे करेंगे ? मेरे ही पूर्वजन्मों के दुष्कृतों का यह परिणाम है । पहिले राजलक्ष्मी को छोड़कर मेरे साथ वन को चल दिये थे — इसीलिये अब तुम्हारे भवन में मेरा रहना वह राजलक्ष्मी सह न सकी । तुम्हारी कृपा से मैं उन तपस्विनियों को शरण देती थी जिनके पति राक्षसों से सताये जाते थे । अब आपके रहते हुए मैं किसकी शरण जाऊँ। तुम्हारे वियोग में मैं आत्महत्या कर लेती यदि तुम्हारा तेज गर्भरूप मेरे उदर में न होता । प्रसव होने के बाद मैं सूर्य की ओर देखकर ऐसी तपस्या करूँगी जिसमें जन्मान्तर में भी तुम्हीं मेरे पति हो किन्तु हमारा वियोग न हो । वर्णों और आश्रमों का पालन करना राजा का धर्म मनु ने बताया है । अतः निष्कासित करने पर
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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