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________________ रघुवंशमहाकाव्य राज्यचर्या ___ इस प्रकार पिता की आज्ञा से वनवास का कष्ट पारकर राम भाइयों में समान आस्था रखते थे और तीनों माताओं को समान आदरभाव से देखते थे। उनकी उदारतासे प्रजा धनी हो गई, उनकी रक्षकता में सब निःशंक होकर काम करने लगे, उनके नियन्त्रण में रहकर सब अपने को पितृमान् और शोकनिवारक राम से सब अपने को पुत्रवान् समझते थे। वे यथासमय नागरिक कार्यों को देखकर सीता के साथ विहार करते थे। इच्छानुकूल पदार्थों का भोग करते हुए दोनों वनवास के चित्रों को देखकर दुःख के दृश्यों से भी सुख का अनुभव करते थे। सीता के स्निग्ध नेत्रों-वाले पाण्डुवर्ण मुख को देखकर राम ने समझ लिया कि यह गर्भवती है। लजाती हुई सीता को गोद में लेकर उन्होंने उसका दोहद (गर्भाभिलाष) पूछा और उसने पुनः वन के आश्रमों को देखने की इच्छा प्रकट की। उस इच्छा को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर राम अयोध्या का निरीक्षण करने के लिये ऊँचे महल पर चढ़े। सजी हुई दुकानों-वाले राजमार्ग, नावों से विलोडित सरयू तथा विलासी नागरिकों से अधिष्ठित बगीचों को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। सीतापरित्याग तब उन्होंने अपने विषय की जनश्रुति को गुप्तचर से पूछा । बार-बार पूछने पर उसने कहा कि सीता के राक्षसगृहनिवास को छोड़कर शेष आपके सारे चरित्र की लोग प्रशंसा करते हैं। पत्नी के निन्दारूप इस अपयश से राम का हृदय अत्यन्त खिन्न हो गया। वे सन्देह में पड़ गए कि अपने इस अपवाद की उपेक्षा कर दूं या सीता का परित्याग करूँ ? बहुत सोचकर उन्होंने सीता-परित्याग का ही निश्चय किया। छोटे भाइयों को बुलाकर उन्होंने अपना वह अपवाद सुनाया और कहा--सूर्य से जो उत्पन्न हुआ और बड़े-बड़े राजर्षि जिसमें हो गए, उस पवित्र वंश में मुझसे कलङ्क लग गया। अब नागरिकों में फैलते हुए इस अपवाद को मैं नहीं सह सकता। इसके परिहार के लिये मैं सीता का त्याग कर दूंगा, जैसे कि मैंने पिता के आदेश से पृथ्वी को त्याग दिया। मैं जानता हूँ सीता निर्दोष है, फिर भी लोकापवाद बलवान है। मैंने जो राक्षसों से युद्ध किया वह तो वैरशोधन के लिए हुआ। यदि आप लोग मुझे जीवित देखना चाहते हैं तो इस निश्चय से न रोकें। उनके इस रुख को देखकर न तो कोई उनको रोक पाया और न समर्थन कर पाया। तब उन्होंने लक्ष्मण को पृथक् आदेश दिया कि तुम्हारी
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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