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________________ xvii उपोद्घात अवृष्टिसंरम्भमिवाम्बुवाहम् अपामिवाधारमनुत्तरङ्गम्। अन्तश्चराणां मरुतां निरोधाग्निवापनिष्कम्पमिव प्रदीपम् ॥ शरीर की समस्त वायुओं का निरोधकर पर्यङ्कबन्ध में स्थिर भगवान् शिव अचंचल होकर ऐसे बैठे हैं जैसे वर्षा के आडम्बर से हीन मेघ (जो कभी भी बरस सकता है) या तरंगों की चञ्चलता से रहित शान्त समुद्र अथवा वायुरहित स्थान में स्थिर दीपक की लौ हो। इन तीनों प्राकृतिक उपमानों द्वारा योगेश्वर की स्थिरता की अभिव्यक्ति शिव के गौरव के कितने अनुकूल है ! ऐसे ही तपस्या के लिये राजकीय आभूषणों को छोड़ वल्कल धारण की हुई पार्वती की उपमा चन्द्रताराओं से मण्डित अरुणोदय-युक्त रजनी से (कु० ५।४४) तथा राक्षस के चंगुल से मुक्त होकर बेहोशी के बाद होश में आती हुई उर्वशी की समता चन्द्रोदय के समय अन्धकार से मुक्त हुई रजनी, रात्रि में धूमराशि से रहित अग्निज्वाला, बरसात में तटभ्रंश से हुए गदलेपन से मुक्त प्रसन्नसलिला गंगा से देकर (विक्रमो० १६) कालिदास केवल अलंकार का निर्वाह मात्र नहीं करते प्रत्युत तीन-तीन दृश्यों को प्रत्यक्षरूप से पाठक के सम्मुख उपस्थित कर देते हैं। इसी प्रकार रघु की दिग्विजय में हारे हुए वंगीय नरेशों की उपमा झुके हुए धान के पौधों से, कलिंग के राजाओं की 'गंभीरवेदी' हाथियों के अंकुश से, प्राग्ज्योतिष (आसाम) के नृपों की हाथियों द्वारा झुकाये गये कालागुरु वृक्षों से देकर उन-उन देशों की विशेषता को कालिदास ने उजागर किया है। प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण ___कालिदास प्रकृतिदेवी के अनुपम पुजारी हैं। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों को हृदयंगम करके वे इतने सजीव रूप में पाठकों के सम्मुख उपस्थित करते हैं कि वणित पदार्थ जैसे सामने मूर्तरूप में विद्यमान हो। कालिदास की दृष्टि में प्रकृति जड़ नहीं है, उसका प्रत्येक अंश पूर्णतः चेतन है। उसमें भी मानव की भांति सुख-दुःख, आशा-निराशा, हर्ष-शोक, ध्यान और चिन्ता की अनुभूति होती है। कालिदास "पटुकरण: प्रापणीय" सन्देशार्थों को “धूमज्योतिःसलिलमरुतां सन्निपात" रूप मेघ द्वारा
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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