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________________ प्रयोदशः सर्गः १७३ से पास वाले को पोतनेवाली (नीला बना देने वाली ) इन्द्रनील ( मरकतमणि ) से गुंथीं हुई, मोतियों की माला की तरह सुन्दर लग रही है । और कहीं पर नीले कमलों से बीचबीच में गुंथी हुई, सुफेद कमलों को माला सी लग रही है ॥ ५४ ॥ ___कहीं पर समूह में रहने वाले ( श्याम हंस, बत्तख ) हंसों से मिली, मानसरोवर के प्रेमी. राजहंसों ( सुफेद ) की पांत के समान सुन्दर लग रही है। कहीं पर श्वेत चन्दन से चीती गई, तथा बीच-बीच में काले अगर से चीती ( बनाई ) गई पृथिवी की शृंगार रचना सी लग रही है ॥ ५५ ॥ कहीं पर "वृक्षों के नीचे" छाया में छिपे अन्धकार से चितकबरी की गई चान्द की चान्दनी सी लग रही है। अर्थात् वृक्ष के नीचे की चान्दनी सी, जिस पर पत्तों को छाया बीच-बीच पड़ रही है। कहीं पर शरद् ऋतु के बादलों की उजली पंक्ति के समान लग रही है, जिस में पत्तों के बीच में जरा-जरा नीला आकाश दोख रहा हो ॥ ५६ ॥ ___ और कहीं पर शिवजी के उस शरीर की तरह दीख रही है जिस पर भस्मरूपी अंगराग लगा है ( भस्मपोत रखी है ) और काले-काले सांपों के भूषण पहने हुए हैं ॥ ५७ ॥ विशेष-यहां पर प्रयाग में गंगा यमुना के संगम का वर्णन कवि ने यमुनाजल को नीला तथा गंगाजल को सुफेद मानकर किया है। समुद्रपत्न्योर्जलसंनिपाते पूतात्मनामत्र किलाभिषेकात् । तत्त्वावबोधेन विनापि भूयस्तनुत्यजां नास्ति शरीरबन्धः ॥ ५८ ॥ अत्र समुद्रपत्न्योर्गङ्गायमुनयोर्जलसंनिपाते संगमेऽभि षेकात्स्नानात्पूतात्मनां तनुत्यजां शुद्धात्मनां पुंसां तत्त्वावबोवेन तत्त्वज्ञानेन विनापि प्रारब्धशरीरत्यागानन्तरं भूयः पुनः शरीरबन्धः शरीरयोगो नास्ति किल। अन्यत्र ज्ञानादेव मुक्तिः । अत्र तु स्नानादेव मुक्तिरित्यर्थः । अन्वयः-अत्र समुद्रपत्न्योः जलसन्निपाते अभिषेकात् पूतात्मनां तनुत्यजां तत्त्वावबोधेन विना अपि भूयः शरीरबन्धः नास्ति किल । व्याख्या-अत्र = अस्मिन् समीचीनाः उद्राः = जलचरविशेषाः यस्मिन् , मुद्रया = मर्यादया सह वर्तते, इति वा समुद्रः। समुद्रस्य = सागरस्य पत्न्यौ = स्त्रियौ इति समुद्रपल्यौ तयोः समुद्रपत्न्योः = गंगायमुनयोः जलयोः = प्रवाहयोः सन्निपातः = संगमस्तस्मिन् जलसन्निपाते अभिषेकात् = स्नानात् पूतः = शुद्धः आत्मा = चित्तं येषां ते पूतात्मानस्तेषां पूतात्मनां तनुं = शरीरं त्यजन्तीति तनुत्यजस्तेषां तनुत्यजां =देहत्यागिनां मनुष्याणां तननं तत् तदस्यास्तीति तत्त्वम् । तनोति सर्वमिदमिति तत् = ब्रह्म तस्य भावस्तत्त्वं, तत्त्वस्य अवबोधः = शानं तेन तत्त्वावबोधेनविनापि = ब्रह्मज्ञानं विनापि भूयः = पुनः प्रारब्धदेहत्यागानन्तरमित्यर्थः शरीरेण = देहेन बन्धः = संबन्धः योगः, इति शरीरबन्धः नास्ति =न भवति । ऋते शानान्न मुक्तिरिति श्रुतेः सर्वत्रान्यत्र आत्मैक्यशानादेव मुक्तिः, गंगायमुनासंगमे तु स्नानमात्रेणैव मुक्तिरिति भावः । समासः-समुद्रस्य पत्न्यौ समुद्रपत्न्यौ तयोः समुद्रपन्योः । जलयोः सन्निपातस्तस्मिन्
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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