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________________ प्राणियों में आहार-निद्रा-भय और मैथुन अलावा कोई भाव नही होते । न विचारने की शक्ति और न अभिव्यक्ति का साधन । पर मनुष्य को ये दोनों वरदान प्राप्त हैं। क्रोध समस्त कषाय या आत्मा को कसनेवाला - परेशान करनेवाला पततोन्मुख बनानेवाला भाव है जिसका उद्गम मान के कारण होता है। दर्शन की भाषा में यही क्रोधादि भाव कर्मबंध के कारण है- कर्म प्रकृतियाँ है । जितनी मात्रा में क्रोध होगा, अशुभ या खराब भावों का आत्मा को दूषित करनेवाले भाव उतनी मात्रा में बंधेगे । पूरे शरीर की रासायणिक प्रक्रिया में बदलाव लाकर मनुष्यता से पशुता की और ले जायेंगे। मनुष्य दूसरों से अधिक स्वयं का अहित करता है। यह क्रोध उसे मरने-मारने हत्या और आत्महत्या तक प्रेरित करता है। जैसा की मैने कहा क्रोध का उद्गम मान है। मनुष्य अष्ट मद या अभिमान से पिडित है। अहम पर चोट पडते ही वह विषैले नागकी तरह फूँकर उठता है और फिर अनर्थ करने से नही हिचकिचाता। समस्त बुरे और गलत कार्य हिंसात्मक कार्य इसी की परणति है। यानी व्यक्ति दूसरे का सुख या सन्मान बर्दास्त नही करत पाता। मान हेतु वह अनेक मायाचारी कार्य करता है । और ये सब होता है पद प्रतिष्ठा के लोभ के कारण । इसीको ध्यान में रखकर आत्मा कलुषित न हो अतः क्रोध के निवारणार्थ क्षमा, मानके निवारणार्थ मृदुता, माया के निवारणार्थ सरलता एवं लोभके निवारणार्थ अन्तर की शुचिता - पवित्रता या निर्लोभता को प्रस्तुत किया है। जिस व्यक्ति में क्षमा, कोमलता, निःस्वार्थपना एवं लोभ भाव नही होता उसे ही जैनदर्शन की भाषा में सम्यगदृष्टि जीव कहा जाता है। उसी का आत्मोत्थान संभव होता है। . • जिस व्यक्ति के ५ व्रत, ४ कषाये दूर होती है उसका जीवन ही वास्तव में मानव जीवन है । जैनधर्म जैसाकि कहा है जीवनजीने की कला है। इसका सबसे बडा कारण कि उसकी कथनी और करनी अर्थात सिद्धांत और आचरण में अद्वैत भाव होते है। मैने प्रारंभ में कहा था कि जैनधर्म गुणावाचक धर्म है। वहाँ गुणो की पूजा होती है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण नमस्कार मंत्र है । पाँचो ज्ञानधारा ६-७33 नैनसाहित्य ज्ञानसत्र ६-७
SR No.032594
Book TitleGyandhara 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2011
Total Pages170
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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