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________________ होती राम का उदय भी नही होता। जैनदर्शन मे इसी ब्रह्म को आत्मोन्नयन का मुख्य कारण उपाय माना है। ____ अंतिम व्रत (पंच व्रतो में) अपरिग्रह माना है। पर मुझे लगता है कि इसे प्रथम व्रत के रुप में मानना चाहिए। समस्त पापों, अन्याय की जड परिग्रह है तो शेष पाँच पापों का जनक भी यही परिग्रह है। जैनदर्शनने परिग्रह को पापका बाप माना है। परिग्रही सदैव लालची, दूसरों को लूटने, भ्रष्टाचार करने, कपट करने, झूठ बोलने में तो माहिर होता ही है पर वह अत्यंत क्रूर किसी भी प्रकार की हिंसा धन के लिए कर सकता है। ऐसी दुष्टता कभी आत्मा की सरलता पवित्रता के दर्शन नहीं करने देगी। परिग्रही का दान भी मान के पोषण के लिए या वाह-वाही लूटने के लिए होता है इन समस्त दूषणों को दूर करने के लीए हमारे अन्य गुणवतो में परिमाण व्रत रखा है। वास्तव में यह परिमाण व्रत परिग्रह, लालच, असंतोष पर लगाम लगाना है। ___जैसा मैने पहले कहा है कि जिसने संयम की, परिमाण की लगाम लगा ली है वही आत्मदर्शन का अधिकारी बनता है। हमारे तीर्थंकर, केवली परमेष्ठी पद धारी इसी दूषण परिग्रह का त्याग करके आत्मजयी बने। हमारा गृहस्थ आवश्यक वह परिग्रह रख सकता है जो जीवन यापन के लिए आवश्यक हो-पर साधु तो तृण-तुष भी नहीं रख सकता। वास्तव में संसारिक वस्तुओं के मोह का त्याग ही अपरिग्रह है। इन पंच व्रतों के धारण के पश्चात व्यक्ति का मन निर्मल बन जाता है। पर अभी कुछ शेष है। आत्मोन्नय के लिए व्रतो का धारण करना तो महत्त्वपूर्ण है ही पर अन्तर में बैठे चार कषायों को तोडना जो ग्रंथि रुप है में उनसे निग्रंथ होता है। यद्यपि ५ व्रतो में इनका समावेश हो जाता है। पर कुछ विशेष प्रकाश डालने के भाव से संक्षिप्त चर्चा कर रहा हूँ। जैनदर्शन मनोभावो को प्रस्तुतिकरण का धर्म है। मनष्य के अंतर में निरंतर क्रोध, मान, माया, लोभ की भावनाएँ तरंगित होती रहती है। अन्य જ્ઞાનધારા ૬-૭ ૩૨ જૈિનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર ૬-
SR No.032594
Book TitleGyandhara 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2011
Total Pages170
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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