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________________ कहलाया। इन जैन आगमों को विषयानुकूल चार अनुयोगों में विभाजित किया गया है। इसमें १२ प्रकार के शास्त्रो में विश्व के सभी विषयों का समावेश हुआ है। वही द्वादशांगवाणी है। आगम आत्मोन्नति या आत्मविकास का दस्तावेज कैसे ? यह भी सोचनाविचारने का विषय है। यहाँ व्यक्ति का आत्मोन्नयन आधेय है और आगम आधार। एक उपादान है दूसरा निमित्त । दस्तावेज शब्द प्रतीक है उसकी दृढता, ठोसपना, शाश्वतसत्यता एवं चिरंचन चिंतक । ऐसे सिद्धआंत जो कभी भी परिवर्तित न हों। वे सर्व कसौटियों पर खरे उतारने के बाद भी स्थापित होते है- अतः उनके सत्य और वास्तविकता कभी भी धुंधले नहीं पडते, बदलते नहीं । अतः ये आगम स्थाई दस्तावेज हर युग और हर काल में सत्य के परिभाषक होते है। 1 हमारे तीर्थंकरों ने अपने उपदेश का सर्वाधिक उपयोगी पात्र या श्रोता श्रावक को माना । उसका जीवन कैसे व्यावहारिक रुपसे उन्नत हो और कैसे मुक्ति पथ पर आरुढ होकर मोक्ष प्राप्त करे यही उनका उद्देश्य होता था । आगम की दृष्टि से सर्वप्रथम पूरे विश्व को जीव और अजीव दो भागों में विभाजित किया है। उसमें जीव में एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय तक के सैनी और असैनी जीवो को रखा है। उसमें भी सैनी पंचेन्द्रिय मनुष्य केन्द्र में रहा । मनुष्य में भी संसारी अणुबती और दूसरी मुक्तिपथगामी महावती का विभाजन हुआ। यह स्पष्टता इसलिए आवश्यक थी कि यह दस्तावेज अमुबती और महावती के लिए सविशेष है। मैं जैन धर्म और दर्शन को संस्कारो का दर्शन मानता हूँ । संस्कार ही व्यक्ति के अन्नयन के सहायक होते है। गर्भाधान से मृत्युमहोत्सव तक की यात्रा का समावेश इसमे हो जाता है। जैन दर्शन मूल में ही गुणों का धर्म है जिसमें व्यक्ति के शरीर से अधिक गुणों के विकास का ध्यान रखा जाता है । हमारे बारह व्रतो में ५ व्रतो को उन्नयन की नीव की ईट के रूप में ले सकते है, जिनमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह मुख्य है। જ્ઞાનધારા ૬-૭ ૨૯ જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર ૬-૭) -
SR No.032594
Book TitleGyandhara 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2011
Total Pages170
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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