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________________ - डॉ. शेखरचंद्र जैन. अहमदावाद, प्रधान संपादक "तीर्थंकर वाणी" देश-विदेश में जैन धर्म पर प्रवचन स्वाध्याय में व्यस्त रहते है। विषय है जिनागमः आत्मोन्नति का मूल दस्तावेज है। इस विषय का प्रारंभ करते समय एक प्रश्न मन में उठता हैं कि आत्मोत्थान या आत्म उन्नति का साधन या मूल आगम ही क्यों? उत्तर ऐसा लगता है कि आगम जैसे जैनधर्म का हार्द ग्रंथ है, उसी प्रकार प्रत्येक धर्म का कोई न कोई एक ग्रंथ होता है जो उसके लिए आदर्श ग्रंथ या आगम ही है। एक प्रश्न और उभरता है कि प्रत्येक धर्म के ग्रंथ मानव को जीवन जीने की कला उसके उत्थान आदि के लिए ही क्यों लिये गये? तो उत्तर भी स्पष्ट है कि चराचर के जीतने भी प्राणी है, उनमें किसी ने अपने नैसर्गिक नियमो का उल्लंघन नहीं किया। जबकि इस सृष्टि की रक्षा-पालन-पोषण के लिए बुद्धि और वाणी का वरदान प्राप्त मनुष्य सदैव प्राकृतिक गुणों का उल्लंघन करता रहा, और लाभ और लोभ के कारण क्रूर-हत्यारा, भ्रष्टाचारी, युद्धखोर शोषक बनता गया। अतः उसे अपने जीवन की परिधि में रहने के लिए कुछ विशेष व्यक्तियों ने जीवन जीने की कला, व्यवस्था के नियम बनाये, उन्हें धर्म के नियम घोषित किए। पुण्य-पाप के साथ जोडा। स्वर्ग-नर्क का सुख और भय भी बताया। इसी पूर्व भामिका के परिप्रेक्ष्य में अपनी बात कहने का प्रयत्न करूँगा। ___आगम जैन या श्रावकों-साधुओं का सर्वमान्य उपदेश ग्रंथ। आगम अर्थात आप्त जन द्वारा दिया गया उपदेश। आप्त जन अर्थात पंचपरमेष्ठी में सर्वोत्तम उपदेशक अरिहंत प्रभु! केवलज्ञान के पश्चात दिया गया उपदेश और पू. गौतम गणधरादि द्वारा सरल भाषा में व्याख्यायित उपदेश ही आगम (ज्ञानधारा ६-७ २८ हिल्य ज्ञाMAR -3)
SR No.032594
Book TitleGyandhara 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2011
Total Pages170
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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