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________________ व्यवस्थाप्रणाली कोई बी धर्म अपनी धरोहर नहीं बना शकता । परमात्मा महावीर देव ने दी हुई चतुर्विध संघ की व्यवस्था अपने आप में अनुठी व्यवस्था है। ईस व्यवस्था के प्रताप से आज भी संघ अनेक भेद उपभेद के बावजुद जीवंत प्रणाली के रूप में जीवित है। ये चतुर्विध संघ के चार अंग है; साधु, साध्वी, श्रावक ओर श्राविका । साधु परमात्मआज्ञा के प्रत्यक्षरूपसे वारिस होने के कारण जैन संघ श्रमणप्रधान माना गया है। साधुओ के नेता आचार्य के मार्गदर्शन में संघ कार्यान्वित होता है। ऐसे संघ की वर्तमान परिस्थिति का बारीकीसे विश्लेषण एवं समालोचन करते हुए कुछ गंभीर समस्याओ का हमारा संघ सामना करता है, वो भी हमारे नजर के सामने आता है । आज का संघ मुख्य चार फिरके एवं अनेक गच्छ, समुदाय, शाखाओ में विभक्त है। एसे विच्छिन्न संघ स्वयं अपने आंतरिक नेतृत्व की तलाश में है । ईसी लिए वह संघ जो परमात्मा महावीर की वैश्विक दृष्टि से विश्व नेतृत्व करने में सक्षम है, वो अपना कर्तव्य सही मायने में कर नही पा रहा है। ईस दिशा मे नेतृत्व की दिशा में क्या कदम उठाने चाहिए एसा प्रश्न जरुर अपने दिलोदिमाग में गुजरेगा। परमात्मा महावीरदेव को माननेवाले सारे जैन एक हो जाए एसी जैन एकता की बात कहेना सरल है, मगर उस का वास्तव में उपलब्धि होना बड़ा कठिन कार्य है। जैन धर्म के चारों फिरको के बीच में सैद्धांतिक मतभेद है। जब जब वो मतभेदो के नीराकरण के लीए प्रयास कीए, वो विफल हुए है। ईतना ही नहि, सभी की आंतरिक शाखाओ में भी बडे विवाद है। आदर्श परिस्थिति तो ऐसी है कि, कुछ नहि तो चारो फिरको के अपने एक संघाचार्य हो ओर वो चारो संघाचार्य मील कर जैन संघ के सामूहिक प्रश्न जैसे अहिंसा, तीर्थरक्षा, जैन श्रावको के विवाहसंबंध, अन्य धर्मो के आक्रमण एवं साधुओ की जीवनव्यवस्था, विहारव्यवस्था आदि के बारे में सोचसमझ से भरा हुआ निर्णय लेवे । ૩ ૧૩૭ ज्ञानधारा ६-७ नैनसाहित्य ज्ञानसत्र ६-७
SR No.032594
Book TitleGyandhara 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2011
Total Pages170
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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