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________________ अनियतविपाक कर्म अर्थात् उत्पन्न होकर समान्तर जन्म में फल देनेवाला है लेकिन जिसका फलभोग हो यह आवश्यक नहीं है। ३. अपरापर्य अनियतविपाक कर्म अर्थात् जो देरी से फल देनेवाला है लेकिन जिसका फल भोग आवश्यक है। ४. अनियतवेदनीय अनियतविपाक कर्म अर्थात् जो अनुभूति और विपाक दोनों दृष्टियों से अनियत है। इस प्रकार बौद्ध विचारक न केवल कर्मों के विपाक में नियतता और अनियतता को स्वीकार करते हैं, वरन् दोनों की विस्तृत व्यख्या भी करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि कौन कर्म नियतविपाकी होगा-प्रथमतः वे कर्म जो केवल कृत नहीं किन्तु उपचित भी हैं नियतविपाक कर्म हैं। कर्म के उपचित होने का मतलब है कर्म का चैत्तसिक के साथ-साथ भौतिक दृष्टि से भी परिसमाप्त होना। दूसरे, वे कर्म जो तीव्र प्रमाद (श्रद्धा) और तीव्र क्लेश (राग द्वेष) से किये जाते हैं, नियतविपाक कर्म हैं। बौद्ध दर्शन की यह धारणा जैन दर्शन से बहुत कुछ मिलती है, लेकिन प्रमुख अन्तर यही है कि जहाँ बौद्ध दर्शन तीव्र श्रद्धा और तीव्र राग-द्वेष दोनों अवस्था में होनेवाले कर्म को नियतविपाकी मानता है, वहाँ जैन दर्शन मात्र राग-द्वेष (कषाय) की अवस्था में किये हुए कर्मों को ही नियतविपाकी मानता है। तीव्र श्रद्धा की अवस्था में किए गये कर्म जैन दर्शन के अनुसार नियतविपाकी नहीं हैं। हाँ यदि तीव्र श्रद्धा के साथ प्रशस्त राग होता है तो शुभ कर्म बन्ध तो होता है, लेकिन वह नियतविपाकी ही हो, यह अनिवार्य नहीं है। दोनों ही इस बात में सहमत है कि मातृवध, पितृवध तथा धर्म, संघ और तीर्थ तथा धर्मप्रवर्तक के प्रति किये गये अपराध नियतविपाकी होते हैं। गीता का दृष्टिकोण वैदिक परम्परा में यह माना गया है कि संचित कर्म को ज्ञान के द्वारा बिना फल भोग के ही नष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार वैदिक परम्परा कर्म-विपाक की अनियतता को स्वीकार कर लेती है। ज्ञानाग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है। अर्थात् ज्ञान के द्वारा संचित कर्मों को नष्ट किया जा सकता है, यद्यपि वैदिक परम्परा में आरब्ध कर्मों का भोग कर्म-सिद्धान्त [41]
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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