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________________ बौद्ध दृष्टिकोण बौद्ध दर्शन में भी कर्मों के विपाक की नियतता और अनियतता का विचार किया गया है। बौद्ध दर्शन में कर्मों को नियत विपाकी और अनियतविपाकी दोनों प्रकार का माना गया है। जिन कर्मों का फल-भोग अनिवार्य नहीं या जिनका प्रतिसंवेदन आवश्यक नहीं वे कर्म अनियतविपाकी हैं। अनियतविपाकी कर्म के फलभोग का उल्लंघन हो सकता है। इसके अतिरिक्त वे कर्म जिनका प्रतिसंवेदना या फलभोग अनिवार्य है वे नियतविपाकी कर्म हैं अर्थात् उनके फलभोग का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। कुछ बौद्ध आचार्यों ने नियतविपाकी और अनियतविपाकी कर्मों के प्रत्येक को चार-चार भागों में विभजित किया है। नियतविपाक कर्म १. दृष्टधर्मवेदनीय नियतविपाक कर्म अर्थात् इसी जन्म में अनिवार्य फल देनेवाला कर्म। २. उपपद्यवेदनीय नियतविपाक कर्म अर्थात् उपपन्न होकर समान्तर जन्म में अनिवार्य फल देनेवाला कर्म। ३. अपरापर्यवेदनीय नियतविपाक कर्म अर्थात विलम्ब से अनिवर्य फल देनेवाला कर्म। ४. अनियत वेदनीय किन्तु नियतविपाक कर्म अर्थात् वे कर्म जो विपच्यमान तो हैं (जिनका स्वभाव बदला जा सकता है एवं सातिक्रमण हो सकता है) किन्तु जिनका भोग अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त कुछ आचार्यों के अनुसार नियतविपाक कर्म पर विपाक-काल की नियतता के आधार पर भी विचार किया जा सकता है और ऐसी अवस्था में नियतविपाक कर्म के दो रूप होंगे (१) जिनका विपाक भी नियत है और विपाक काल भी नियत है तथा (२) वे जिनका विपाक जो नियत है, लेकिन विपाक काल नियत नहीं। ऐसे कर्म अपरापर्यवेदनीय से दृष्टधर्मवेदनीय बन जाते हैं। . अनियतविपाक कर्म १. दृष्टधर्मवेदनीय अनियतविपाक कर्म अर्थात् जो इसी जन्म में फल देनेवाला है लेकिन जिसका फल भोग आवश्यक नहीं है। २. उपपद्यवेदनीय [40] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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