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________________ हो जाते हैं। जैन दर्शन में फल देना और फल की अनुभूति होना ये अलग तथ्य माने गये हैं। जो कर्म बिना फल की अनुभूति कराये निर्जरित हो जाता है, उसका उदय प्रदेशोदय कहा जाता है। जैसे, आपरेशन करते समय अचेतन अवस्था में शल्य क्रिया की वेदना की अनुभूति नहीं होती। कषाय के अभाव में ईर्यापथिक क्रिया के कारण जो बन्ध होता है उसका मात्र प्रदेशोदय होता है। जो कर्म परमाणु अपनी फलानुभूति करवाकर आत्मा से निर्जरित होते हैं, उनका उदय विपाकोदय कहलाता है। विपाकोदय की अवस्था में तो प्रदेशोदय होता ही है, लेकिन प्रदेशोदय की अवस्था में विपाकोदय हो ही, यह अनिवार्य नहीं है। ७. उदीरणा- जिस प्रकार समय से पूर्व कृत्रिम रूप से फल को पकाया जा सकता है, उसी प्रकार नियत काल के पूर्व ही प्रयासपूर्वक उदय में लाकर कर्मों के फलों को भोग लेना उदीरणा है। साधारण नियम यह है कि जिस कर्म प्रकृति का उदय या भोग चल रहा हो, उसकी सजातीय कर्म-प्रकृति की उदीरणा सम्भव है। ८. उपशमन- कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उनके फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दवा देना या उन्हें किसी काल विशेष के लिए फल देने में सक्षम बना देना उपशमन है। उपशमन में कर्म को ढंकी हुई अग्नि के समान बना दिया जाता है। जिस प्रकार राख से दबी हुई अग्नि उस आवरण के दूर होते ही पुनः प्रज्ज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार उपशमन की अवस्था के समाप्त होते ही पुनः उदय में आकर अपना फल देता है। उपशमन में कर्म की सत्ता नष्ट नहीं होती है, मात्र उसे काल विशेष तक के लिए फल देने में अक्षम बनाया जाता है। ९. निधत्ति- कर्म की वह अवस्था निधत्ति है जिसमें कर्म न अपने अवान्तर भेदों में रूपान्तरित हो सकते हैं और न अपना फल प्रदान कर सकते हैं, लेकिन कर्मों की समय-मर्यादा और विपाक तीव्रता (परिणाम) को कम अधिक किया जा सकता है अर्थात् इस अवस्था में उत्कर्षण और अपकर्षण सम्भव हैं। [36] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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