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________________ होती है, लेकिन जो व्यक्ति जितना अधिक अपवित्र होता है, उसमें कर्मसंक्रमण की क्षमता उतनी ही क्षीण होती है और वह अधिक मात्रा में परिस्थतियों (कर्मों) का दास होता है । पवित्र आत्माएँ परिस्थितियों की दास न होकर उनकी स्वामी बन जाती हैं । इस प्रकार संक्रमण की प्रक्रिया आत्मा के स्वातन्त्र्य और दासता को व्यक्ति की नैतिक प्रगति पर अधिष्ठित करती है । दूसरे, संक्रमण की धारणा भाग्यवाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद को सबल बनाती है । ३. उद्वर्तना- आत्मा से कर्म - परमाणुओं के बद्ध होते समय जो काषायिक तारतमता होती है उसी के अनुसार बन्धन के समय कर्म की स्थिति तथा तीव्रता का निश्चय होता है। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार आत्मा नवीन बन्ध करते समय पूर्वकृत कर्मों की कालमर्यादा और तीव्रता को बढ़ा भी सकती है । यही कर्म परमाणुओं की काल मर्यादा और तीव्रता को बढ़ाने कि क्रिया उद्वर्तना कही जाती है I ४. अपवर्तना- जिस प्रकार नवीन बन्ध के समय पूर्वबद्ध कर्मों की काल मर्यादा (स्थिति) और तीव्रता (अनुभाग ) को बढ़ाया जा सकता है उसी प्रकार उसे कम भी किया जा सकता है और यह कम करने की क्रिया अपवर्तना कहलाती है। ५. सत्ता- कर्मों का बन्ध हो जाते से पश्चात् उनका विपाक भविष्य में किस समय होता है । प्रत्येक कर्म अपने सत्ता काल के समाप्त होने पर ही फल ( विपाक) दे पाता है। जितने समय तक काल मर्यादा परिपक्व न होने के कारण कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध बना रहता है, उस अवस्था को सत्ता कहते हैं । ६. उदय- जब कर्म अपना फल ( विपाक) देना प्रारम्भ कर देते हैं, उस अवस्था को उदय कहते हैं । जैन दर्शन यह भी मानता है कि सभी कर्म अपना फल प्रदान तो करते हैं लेकिन कुछ कर्म ऐसे भी होते है जो फल देते हुए भी भोक्ता को फल की अनुभूति नहीं कराते हैं और निजरित कर्म - सिद्धान्त [35]
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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