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________________ कर्म-सिद्धान्त की उद्भावना में औपनिषदिक चिन्तन का योगदान यह है कि उसमें तत्कालीन काल, स्वभाव, नियति आदि सिद्धान्तों की अपूर्णता की अभिव्यक्त करने का प्रयास मात्र किया गया। उसने न केवल इनका निषेध किया, वरन् इनके स्थान पर ईश्वर (ब्रह्म) को कारण मानने का प्रयास किया। श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा गया है कि कुछ बुद्धिमान तो स्वभाव को कारण बतलाते हैं और कुछ काल को, किन्तु ये मोहग्रस्त है (अतः ठीक नहीं जानते)। यह भगवान् की महिमा ही है, जिससे लोक में यह ब्रह्मचक्र घूम रहा है। लेकिन वह ब्रह्म भी पूर्वकथित विभिन्न कारणों का अधिष्ठान ही बन सका, कारण नहीं। भाष्यकार कहते हैं कि ब्रह्म न कारण है, न अकारण, न कारण-अकारण उभयरूप है, न दोनों से भिन्न हैं। अद्वितीय परमात्मा का कारणत्व उपादान अथवा निमित्त स्वतः कुछ भी नहीं है। इस प्रकार औपनिषदिक चिन्तन में कारण क्या है? यह निश्चय नहीं हो सका। गीता का दृष्टिकोण ___गीता में कालवाद, स्वभाववाद, प्रकृतिवाद, दैववाद एवं ईश्वरवाद के संकेत मिलते हैं। गीताकार इन सब सिद्धान्तों को यथावसर स्वीकार करके चलता है। वह कभी काल को, कभी प्रकृति को, कभी स्वभाव को, तो कभी पुरुष अथवा ईश्वर को कारण मानता है। यद्यपि गीताकार पूर्ववर्ती विचारकों से इस बात में तो भिन्न है कि इसमें से वह किसी एक ही सिद्धान्त को मानकर नहीं चलता, वरन् यथावसर सभी के मूल्य को स्वीकार करके चलता है, तथापि उसमें स्पष्ट समन्वय का अभाव-सा लगता है और इस तरह सभी सिद्धान्त पृथक् से रह जाते हैं। फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि गीताकार अन्तिम कारण के रूप में ईश्वर को ही स्वीकार करता है। बौद्ध दृष्टिकोण श्रमण परम्परा में इन विभिन्न वादों का निराकरण किया गया एवं ब्रह्म के स्थान पर कर्म को ही इसका कारण माना गया। बुद्ध और महावीर [8] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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