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________________ ७. ईश्वरवाद - इसके अनुसार ईश्वर ही जगत् का रचयिता एवं नियन्ता है। जो भी कुछ होता है वह सब उसी की इच्छा का परिणाम है। जैन और बौद्ध आगमों में एवं औपनिषदिक साहित्य में इन सभी मान्यताओं की आलोचना की गयी है। यह समालोचना ही एक व्यवस्थित कर्म-सिद्धान्त की स्थापना का आधार बनी है। डॉ० नथमल टांटिया के शब्दों में सृष्टि सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओं के विरोध में ही कर्मसिद्धान्त का विकास हुआ, ऐसा प्रतीत होता है। ५. औपनिषदिक दृष्टिकोण औपनिषदिक साहित्य में सर्वप्रथम इन विविध मान्यताओं की समीक्षा की गयी है। जहाँ पूर्ववर्ती ऋषियों ने जगत् के वैचित्र्य एवं वैयक्तिक विभिन्नताओं का कारण किन्हीं बाह्य तत्त्वों को मानकर सन्तोष किया होगा, वहाँ औपनिषदिक ऋषियों ने इन मान्यताओं की समीक्षा के द्वारा आन्तरिक कारण खोजने का प्रयास किया। श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रारम्भ में ही यह प्रश्न उठाया गया है कि हम किसके द्वारा सुख-दुःख में प्रेरित होकर संसार-यात्रा (व्यवस्था) का अनुवर्तन कर रहे हैं? ऋषि यह जिज्ञासा प्रकट करता है कि क्या काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, योनि (प्रकृति), पुरुष एवं इनका संयोग कारण है? इस पर विचार करना चाहिए। ऋषि का कहना कि काल स्वभाव आदि कारण नहीं हो सकते, न इनका संयोग ही कारण हो सकता है; क्योंकि इनमें से प्रत्येक तथा इनका संयोग सभी आत्मा से 'पर' है, अतः इनका आत्मा से तादात्म्यभाव नहीं माना जा सकता। जीवात्मा भी कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो स्वयं सुख-दुःख के अधीन है।" श्वेताश्वतर भाष्य में काल, स्वभाव आदि के कारण न हो सकने के सम्बन्ध में यह भी तर्क दिया गया है कि कालादि में प्रत्येक अलग-अलग रूप में कारण नहीं माने जा सकते, ऐसा मानना प्रत्यक्ष-विरुद्ध है, क्योंकि लोक में कालादि निमित्तों के परस्पर मिलने पर ही कार्य होते देखा जाता है। कर्म-सिद्धान्त [7]
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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