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________________ g8 THE INDIAN ANTIQUARY [JUNE, 1916 पपई प्रकार भ्रमरा तणी पर थोडा थोडत आहार लेता श्रमण महात्मा कह्या लोक माहिं जे जेनसाध वर्तई से फूल नई विषई भमरा नी परि आहार लिइँ गृहस्थ नई अन्तराय न ऊपजई आपण निर्वाह करई। किंविशिष्टाः साधवाः। वीयूँ भात तेह नी एषणा शुद्धि नई विपईं रत आसक्त छई भमरा अणदी) लिई साधु दीवू सूझतुं लिई एतलर विशेष जाणिवउ ॥३॥ वयं च। जीणई प्रकारई कोर गृहस्थ पीडा न पामई तेणई प्रकार अम्हे वृत्ति प्राणाधार भाहार लहुँ० ईणि पुद्धिई साधु ऋषीश्वर गृहस्थ तण परिभापहनी नीपना आहार नह विषह जाई जिम भमरा आपहणी नीपनी फूल नई विषई जाई॥४॥ महकार ॥ जे साधु कुणह तणी निभा रहित हुई ते ऋषीश्वर अल्पाहार लइवा तु मधुकर सरीखा ई । किंवा तत्त्व तणा जाण छ । पुनः किंवि । नाना प्रकार गृहस्थ सणई घरे पिण्ड भाहार नई विषई रत आसक्त छई। तेणि कारणि इस्या साधु कही इस्य नीर्थंकर तणई वचनई अध्ययन तणी समाप्ति हु बोलु ॥५॥. 8. The Meaning of "Arihanta". [From a commentary on the Paricanamolekhara, contained in tho MS. No.580 in the Regia Biblioteca Nazionale Centrale of Florence). नमो अरिहन्ता | भरिहन्त नई साह नमस्कार किस्या छते अरिहन्त । रागषरुपिया [भ]रि वयरी हण्या छा जेहे से "अरिहन्त" | वली किशा छई। चउसहि० इन्द्र सणी मीपजावी पूजा हाँ योग्य थाई। किशा ते इन्द्र | वीस भवनपति बीस विन्तरेन्द्र वस देवलोक ना विचन्द्र विसर्य ए चउसति इन्द्र सम्बन्धिनी पूजा हुई योग्य थाई। वली अरिहन्त किशा छ। उत्पन्न केवलज्ञान चउत्रीस अतिपाई करी विराजमान अष्टमहापातिहार्यसंशोभमान | किस्था ते प्रातिहार्य । भशोकवृक्ष फलपगर परमेश्वर मी वाँणी चाँमरयुग्म सिंहासन छबत्रय भामण्डल देवतुन्तुभि एहे आठ प्रातिहार्य करी शोभायमान । तीर्थंकर विहरमान पद भ्यायिवा । जिसमें स्फटिकमाणे भरत्न शाकुन्द तणी पुष्फ तेह नी परि धवलवर्ण श्री चन्द्रमा सुविधिनाथ भरिहन्त जाँणिवा । जे मोक्षपदवी ना देणहार ते भरिहन्त प्रति माह नमस्कार ! 9. Helplessness of Man in the Human Condition of Life. From a bálavabodha to the Adinathadesaņoddhara, contained in the MS. S. 1561, in the India Office Library.] संसार माहिमधी सुख जन्मजरामरणशोके करी तथा तउहा ते मिथ्यात्वि अन्धका जीवन कर श्रीजिनेन्द्र नउ वर धर्म | १। मायावी इन्द्रजालीया सरीखु वीजचमत्कार सबका सरीख सर्व सामान्य माचार क्षण माहि दीठ अन नाठउँ किसउँ अत्र प्रतिबन्ध । २। कूण कहि ना सगउँ कूण पर भवसमुद्रभमणमि० माछा नी पर भमई जीव मिलई वली जाई भातवर । जन्मि जन्म स्वजन नी श्रेणि मूंकी जेतली जीवई तेतली सर्वाकाशि एकठी करीन माई।४। जीवई भवि भवि मेल्हियाँ देह जेतली संसारि तेह सघलाँइ सागरोपमे करी कीजइ संख्या तु अनन्तहिं न थाइ । ५। लोक्य सघल105 अशरण छरहीडा विविधयोनि माहि पइस नासत्र हतई न छूटर जन्मजरामरणरोग न छाडी नह स्वजनवर्ग घरनी लक्ष्मी नउ विस्तार सघलउह संसार अपारावार मार्ग माहि अनाथ पन्थी नी पर जीव जाह ||वाभाहणि पांडरउँ०० पोनड तेह नउ संचय जार विशे विशे जिम वाल्हउँछ तिम कुटुम्ब स्वकर्मवाई आहाणउँ जाइ। ८ हा देव माहरी मा हा बाप हा बान्धव भार्या बेटा वल्लभ 'जीता हैतान सर्व मरह कुटुम्ब सकरुण नउँ |९| अथवा कटुम्ब माहि अतिवल्लभ व्याधि वेदनार पीडिउ सलसला सवडा (?sic) व्याधि मूमरि माहि गयउ पडकला नउँ बाल तेह नी परि।१०। स्वजन न लिई वेदना न वैद्य राखईन रक्षा कर भोषधी मरणवापर जीव लीजा जिम० हरिण नउँ बालक तेह नी पर। ११ । जिम तरुभर नइ विषह पंखीया विआलवेलाँ विशि दिश तर भाष्था अनद रात्रि वसी नई जाई केवल न जाणी केतलाइ एक केही शिश। १२घररूपीया वृक्ष नह विषद सगा चि गति संसार माहि घणी शिशि थी भाव्या वसीना पच्च दीहा पछा न जाणीह लिं. आपणो ने 49 रत्त. एतली. 50 लह ल हंचात. 62 तस्व. 53 आहर. 45.5 किस्यां. चउंसवि. चउंसव. 59 चउंत्रीस. 0 माह. ०० हूं. अथ. 62 The last element in the compound is a Prakrit form borrowed from the original. सघलाई. Prakrit form. 6 सघलठ. पांडरउ. हूंता. तउं. ०वडकला. ० तिम.
SR No.032537
Book TitleIndian Antiquary Vol 45
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRichard Carnac Temple, Devadatta Ramkrishna Bhandarkar
PublisherSwati Publications
Publication Year1984
Total Pages380
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size16 MB
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