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________________ श्री गुरु गौतमस्वामी ] [८४५ द्वारा वे १५०३ तापस प्रतिबद्ध हुए दीक्षित, बने, पारणा किया। तो पारणा करते करते पहला ग्रास लेते लेते जो दीर्घ तपस्वी थे, अट्ठम पारणे अट्ठम के तप करते थे उनको तो खीर भोजन करते हुए केवलज्ञान हो गया। सम्पूर्ण केवलज्ञान हो गया बाद में समवसरण के प्रति गमन करते करते और भगवान के समवसरण का ज्यों ही दर्शन हुआ त्यों ही दूसरी पलटन थी ५०१ की उनको केवलज्ञान हो गया। और भगवान की जो वाणी सुनी तब तीसरा पलटन केवलज्ञानी हो गया। १५०३ ही केवलज्ञानी बन गए। समवसरण में भगवान की प्रदिक्षिणा करके और केवली परषदा में बैठ गए। बाकी चालू वन्दना रूप में वन्दनाविधि नहीं की। तब गणधर गौतम इस प्रकार कहते हैं कि भगवान को वन्दना करो। तब भगवान की दिव्य वाणी द्वारा यह सुनने में आया कि हे गौतम! केवली की आशातना मत करो। केवीली की आशातना मत करो! एकदम आश्चर्यचकित हो गए कि धन्य है इन महापुरुषों को, ये केवली बन गए, पूज्य बन गये। इस तरह से अपने भक्तिराग को कायम बना रखा है, वह छूट नहीं रहा है। तब भगवान ने स्वाभाविक रूप में ही इच्छारहित रूप में भी जो होनहार है उस प्रकार वह आदेश दिया कि जाओ, देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध करके आओ! भगवान अपने उदय के अनुसार आयु का अन्तिम भाग देशना द्वारा विश्व के कल्याण के रूप में जो बोध देना था वह चालू है, पर वह (गौतमस्वामी) गये हैं। वहाँ जा कर देवशर्मा को प्रतिबोध दिया। उनको दीक्षित बनाया। रात्रि का समय वहाँ ठहरे। मध्यरात्रि का समय हुआ तब बहुत से देवताओं का आवागमन देखा और उनके मुखारविंद से यह बात सुनी, भगवान का निर्वाण हे गया। भगवान का निर्वाण सनते ही गणधर गौतम के हृदय में जैसे कोड वज्र लगा हो. वज्र क आघात-एकदम मूर्छित हो गये। चार ज्ञान के मालिक आत्मज्ञानी थे पर यह भक्तिराग का परिणाम है। यह भी एक मोह का थोड़ा सा अंश है। जिसके कारण यह वज्राहत हो गए और 'उपकारी को नांही विसरीए' यह भक्तजीवन का संबल है। इस लिये एकदम मूर्छित हो कर गिर पड़े और जब चेतना आई तब उन्होंने भगवान को उपालंभ देते हुए जो भाव आया वैसी वाणी ललकारी। विलाप करते हुए वे बोलने लगे कि हे स्वामी! हे तीनों जगत के सूर्य! आप अस्त हो गए! अब चतुर्विध संघ के भव्य कमल के मुख कैसे उल्लसित होंगे? खरेखर, आप सूर्य के अस्त हो जाने के बाद पाखण्डी तारकों का, ताराओं का, प्रकाश जगत को भ्रम में डालेगा, पापराहु से ग्रसित हो जायेगा यह संघ । धर्मचन्द्र जहाँ कहीं दिखता वहाँ पर खरे अन्धकार हो जाता है जगत में। हे वीर, आपने यह क्या किया, जिस समय में अपने शिष्यों को शरण में बुला करके कुछ शिक्षा देनी चाहिए उस समय में आपने मुझे दूर कर दिया। इतना भी लोकव्यवहार आपने नहीं संभाला! क्या मैं आपको छोटे बच्चे की तरह आपका हाथ पकड़ करके मुक्ति पाने के लिए आपको तंग करता, अथवा क्या आपसे मैंने बलात्कार से कभी केवलज्ञान की माँग की है, अथवा क्य आपके प्रति प्रति कृत्रिम स्नेह है, झूठा झूठा स्नेह है? क्या मैं आपके साथ चलता तो मैं आपको दुःख रूप हो जाता ? हे वीर स्वामी! आपने आ सूं कर्यु-आपने यह क्या किया? ऐसे खास अवसर पर मुझे भुला दिया। अब मेरे प्रश्नों का समाधान कौन देगा? खरेखर, हे प्रभु! आपने मेरे हृदय को जला दिया, महान् दाह दिया। मेरे दुःख को दूर कौन करेगा? इस संसार में आपके सिवाय और कोई चारा नहीं।
SR No.032491
Book TitleMahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Devluk
PublisherArihant Prakashan
Publication Year
Total Pages854
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size42 MB
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